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माँ के बाद पिता (काव्य) |
Author: विनोद दूबे
माँ मर गयी तो पिता यूँ हो गए,
जैसे दो में से एक नहीं, सिर्फ शून्य शेष रह गया,
माँ, पिता और बच्चों के संबाद का पुल थी,
अब पिता अकसर ख़ामोश रहते हैं,
माँ के साथ उनका वो पुल भी बह गया।
माँ थी, तो पिता नज़र आते थे,
माँ के साथ बेतुके बहस करते,
मुस्कराते हुए माँ के ताने सुनते,
अपने पुराने टेप रिकॉर्डर पर,
हेमंत कुमार के गाने सुनते,
कभी-कभार पीली साड़ी पहने,
माँ पिता के सामने आ जाती थी,
तो पिता उसे ग़ौर से देखते,
वो उनके गाँव के
सरसों की याद दिलाती थी।
सिर्फ माँ को पता होता था,
पिता के चाय का बख़त,
सिर्फ वही जान पाती थी,
उनका स्वादानुसार नमक,
माँ अपने सांथ उड़ा ले गयी है,
पिता के किरदार के सारे रंग,
यूँ जी रहे है जिंदगी आजकल,
जैसे हो चला हो इससे मोहभंग।
जिन दोस्तों के लिए माँ ताने देती थी,
आज-कल उनसे भी मिलने नहीं जाते हैं,
हेमंत कुमार के गाने कब से नहीं बजे,
सिर्फ भजन कीर्तन में वक्त बिताते है,
किसी पुरानी वीडियो रिकॉर्डिंग में,
जब माँ चलते फिरते दिखती है,
तो पिता की आँखें स्थिर हो जाती हैं,
उनसे कुछ कहा नहीं जाता,
सिर्फ उनकी नाराज़ आँखें
सवाल कर पाती हैं--
तुमने मुझे क्यूँ धोखा दिया?
मैंने तो तुमसे किया हर वादा निभाया था,
मुझे यूँ अकेले छोड़कर चली गयी,
क्या इसी के लिए मैं तुम्हे ब्याहकर लाया था,
कभी चाय मिलने में देर होती है,
तो माँ की तस्वीर की तरफ़
देखकर यूँ बुदबुदाते हैं,
लगता है जैसे माँ यहीं कहीं है,
माँ के बाद पिता होकर भी,
हमारे साथ नहीं, नहीं हैं।
- विनोद दूबे, सिंगापुर