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रात दिन यूं चला (काव्य) |
Author: सूर्यभानु गुप्त
रात दिन यूं चला सिलसिला झूठ का,
बन गया दोस्तो! एक क़िला झूठ का।
सच तो मुरझा गये राजदरबार में,
कोई चेहरा खिला तो खिला झूठ का।
आईना देखने की थी फुर्सत किसे,
खूबसूरत था इतना सिला झूठ का।
शह्रे जम्हूरियत मर्हबा मर्हबा,
रहगुजर-रहगुजर क़ाफ़िला झूठ का।
अब के सुकरात बेजह्र ही मर गये,
हर क़दम वो तमाशा मिला झूठ का।
हाथ रावण के पूरी अयोध्या है अब,
किससे कीजे यहाँ पे गिला झूठ का!
-सूर्यभानु गुप्त