जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

खुले द्वार (कथा-कहानी)

Author: श्यामू सन्यासी

मिट्टी के ढेर पर ठीकरी-ठीकरी हंडिया आ बिखरी।

मिट्टी के ढेर ने पूछा--क्यों?

हंडिया बोली-आश्रय लेने घर लौट आई हूँ। वहाँ अब मेरी आवश्यकता नहीं रहीं।

‘आओ, आओ!’--मिट्टी का ढेर बोला—'सभ्यता की तरह इस घर के द्वार खुल कर बन्द नहीं होते; निकालना नहीं जानते। ये द्वार सदा खुले हैं। आओ।'

...और ठीकरियाँ उस ढेर में लुक-छिप गई।

-श्यामू सन्यासी

(1938)

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