जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

अपनों के लिए (कथा-कहानी)

Author: रोहित कुमार 'हैप्पी'

एक लड़का था। वह अपनी दादी से बहुत प्यार करता था। दादी अधिकतर इस छोटे लड़के का हाथ पकड़े हुए चलती थी। हर दिन वे हरे-भरे जंगल की छतरी वाले स्नान करने वाले स्थान पर जाते। वहाँ नदी चौड़ी पर धीमी थी। एक दिन जब पक्षी चहचहा रहे थे और "कूह-कूह" के मधुर गीत गा रहे थे, यह जीवन को हमेशा के लिए बदल देने वाला दिन था। बसंत ऋतु थी। बैंगनी तुरही-फूलों ने अपने चेहरे सूरज की ओर उठाये हुए थे। कोई नहीं जानता था कि आगे क्या होने वाला था!

दादी ने अपनी सबसे अच्छी बुनी हुई चटाई ज़मीन पर बिछा दी। उसने बच्चे को उस पर बिठाया। "जब तक मैं स्नान करूँ, यहीं रहना।" उसने कहा, "नदी का पानी बहुत ठंडा है और यह बहुत गहरी है। पानी में मत जाना। बस मेरा इंतजार करना।"

फिर, दादी ने एक चौंकाने वाला काम किया। दादी की बूढ़ी हो चुकी त्वचा के अंदर से रेंगते हुए एक युवा महिला बाहर निकली। बूढ़ी दादी का शरीर तो झुर्रियों से भरा हुआ था और उसके घुटनों और कोहनियों के चारों ओर त्वचा ढीली होकर लटकी हुई थी। यहाँ तक कि उसके गाल भी पके फल की तरह लटक चुके थे लेकिन उसके अंदर से निकली महिला बिलकुल युवा थी। दादी ने अपनी पुरानी त्वचा जमीन पर ऐसे गिरा दी जैसे नारियल की खाली भूसी फेंक रही हो। "मैं जल्द ही लौट आऊँगी।" उसने अपने पोते से कहा। फिर वह ठंडे, ताजे पानी में उतर गई।

ठहरे हुए पानी पर सूरज की रोशनी चमक रही थी। पोते ने दादी को पानी में छपाक से उतरते हुए देखा। जल्द ही वह नहाकर, उसके पास वापस आ गई। "देखा! मैं ज्यादा देर के लिए  नहीं गई थी, है न!" दादी ने मुसकुराकर पोते की ओर देखा।

बालक ने कोई जवाब नहीं दिया। वह भयभीत होकर उसकी ओर एकटक देख रहा था।

चलो। अब मैं तुम्हें तुम्हारे भाइयों के पास घर ले चलती हूँ लेकिन वह खड़ा-खड़ा उसे निहार रहा था। उसके होंठ डर से फड़फड़ा रहे थे। उसने अपनी दादी को पहले ऐसे कभी अपनी बूढ़ी त्वचा उतारकर, ऐसे कायाकल्प करते पहले कभी नहीं देखा था। बूढ़ी त्वचा के अंदर से प्रकट हुई युवा महिला को वह नहीं पहचानता था। यह सुंदर और जवान थी। उसके चेहरे पर गुलाब-सी लाली थी। वह आकर्षक थी, लेकिन वह उसके साथ नहीं जाना चाहता था। जब उसने अपना हाथ बढ़ाया, तो वह ‘न’ करता हुआ ज़मीन पर पसर गया।

"क्या हुआ?" उसने कहा। "क्या तुम मुझसे डरते हो, मेरे बच्चे? मैं तुम्हारी दादी हूं। क्या तुम्हें लगता है कि तुम मुझे नहीं जानते? याद है, हमने जंगल में कैसे बेर तोड़े थे? तुम्हें गले हुए पेड़ के तने में कितनी सारी लाल चींटियाँ मिलीं थीं! हमने साथ-साथ गाना भी गाया था।

छोटा बच्चा उससे बात करने से डर रहा था। वह चाहता था कि उसकी अपनी दादी वापस आ जाए। उसे यह नए रूप वाली औरत बिल्कुल पसंद नहीं आई थी। उसे यह अपनी दादी नहीं लग रही थी। उसे तो अपनी दादी का वही स्वाभाविक रूप अच्छा लगता था। 

उसकी दादी उसके पास बैठ गईं। दुःख से उसका मुंह लटक गया। फिर से जवान और खूबसूरत बनने के लिए उसने कितने यत्न किए थे। अब वह जान चुकी थी कि ऐसा करना उसके लिए लाभकारी नहीं  था। उसने एक गहरी आह भरी। धीरे से पुरानी, ​​झुर्रियों वाली त्वचा उठाकर साफ़ की और उसे फिर से धारण कर लिया। उसका चेहरा दुख के मारे अब भी लटका था। उसका चेहरा फिर से उम्र और चिंता से भरा लगता था। उसकी युवा हुई काया दुबारा अपने मूल रूप में आ गई थी। उसकी त्वचा और अन्य अंग फिर से बूढ़े दिखने लगे। वह पहले जैसी हो गई थी। झुर्रियों वाली बूढ़ी अम्मा!

बुढ़िया ने हाथ बढ़ाया, बच्चा अब उसका हाथ थामकर उठ खड़ा हुआ। बुढ़िया ने आह भरी, "अपनों के लिए सब करना पड़ता है।"

-रोहित कुमार 'हैप्पी'

[वानुआतू आइलैंड की लोक-कथा]

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