बिना मातृभाषा की उन्नति के देश का गौरव कदापि वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। - गोविंद शास्त्री दुगवेकर।
 

रत्न-करण (काव्य)

Author: श्रीनाथ सिंह

जलाती जिसे क्रोध की आग,
धर्म का उसको बन्धन व्यर्थ
न सीखा जिसने करना त्याग,
प्रेम का वह क्या जाने अर्थ
रहा जिस पर आलस्य सवार,
मनुज वह जीवित मृतक समान।
लोभ ही है जिसका व्यापार,
बराबर उसे मान अपमान॥

-श्रीनाथ सिंह

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश