बिना मातृभाषा की उन्नति के देश का गौरव कदापि वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। - गोविंद शास्त्री दुगवेकर।
 

मनीष कुमार मिश्रा की दो ग़ज़लें  (काव्य)

Author: मनीष कुमार मिश्रा

शरद की रातों में हरसिंगार झरता रहा
वो चुपचाप चांदनी पीकर महकता रहा।

चुनकर उसे कितनों ने गले का हार किया
ना जाने कितनी आहों से वह लिपटा रहा।

वो लड़की जिज्ञासा का उत्तम उदाहरण है
जिसके बारे में मुझसे हरकोई पूछता रहा।

रात में उस चांद ने मुझे अकेला न छोड़ा 
जब तक चल सका वो साथ चलता रहा।

रुकोगी नहीं ? यह मेरा आख़री सवाल था
भर निगाह देखा उसे जाते कि देखता रहा।

-डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

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इन बारिश की बूंदों ने कमाल कर दिया
उसे जी भर भिगोकर निहाल कर दिया।

नए शासक का नया निज़ाम अनोखा है
सब मारे जाएंगे अगर सवाल कर दिया।

ये बादलों की दिल्लगी अजीब है बहुत
पड़ा कहीं सूखा कहीं अकाल कर दिया।

क्या बुरा था कि जाते हुए हँसकर जाते
उन्होंने जाते हुए बड़ा मलाल कर दिया।

जितना सुलझाना चाहा उतना ही उलझे 
इश्क को ख़ुद जी का जंजाल कर दिया।

-डॉ मनीष कुमार मिश्रा 
ई-मेल : manishmuntazir@gmail.com

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