जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।
 

होली (फाल्गुन पूर्णिमा) (काव्य)

Author: आचार्य मायाराम पतंग

हवन करें पापों तापों को, देशप्रेम ज्वाला में।
कपट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, भूले स्नेहिल हाला में॥

शीतजनित आलस्य त्यागकर, सब समाज उठ जाए।
यह मदमाती पवन आज तन-मन में जोश जगाए।
थिरक उठें पग सभी जनों के मिलकर रंगशाला में।
कपट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, भूले स्नेहिल हाला में॥

भाषा और प्रांत भेदों की हवा न हम गरमाएँ।
छूआछात की सड़ी गंध से, मुक्त आज हो जाएँ ।
पंथ, जाति का तजकर अंतर, मिलें एक माला में।
कपट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, भूले स्नेहिल हाला में॥

भारत भू के कण-कण में, धन प्रेमसुधा बरसाएँ।
गौरवशाली राष्ट्र परम वैभव तक हम ले जाएँ।
मिट जाए दारिद्र्य, विषमता, परिश्रम की ज्वाला में।
कपट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, भूले स्नेहिल हाला में।
हवन करें पापों तापों को, देशप्रेम ज्वाला में॥

- आचार्य मायाराम 'पतंग'
   [चुने हुए विद्यालय गीत]

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश