भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 

अधूरी कहानी (कथा-कहानी)

Author: कुमारी राजरानी

मैं भला क्यों उसे इतना प्यार करती थी ? उसके नाममात्र से सारे शरीर में विचित्र कँपकँपी फैल जाती थी। उसकी प्रशंसा सुनते ही मेरी आँखें चमक जाती थीं। उसकी निन्दा सुनकर मेरा मन भारी हो उठता था। पर मैं उसके निन्दकों का खण्डन नहीं कर सकती थी, क्योंकि उसके पक्ष समर्थन के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं थे। बस, अपनी विवशता पर गुस्सा आता था। और यदि मेरे पास पर्याप्त शब्द होते भी, तो मैं किस नाते उसके निन्दकों का मुँह बन्द करती?  वह मेरा कौन था और मैं उसकी क्या लगती थी!

मैं उसकी पूजा करती थी। उसमें पवित्रता के अतिरिक्त कुछ नहीं था। मेरा प्यार बादाम के पेड़ के फूलों के समान था, जो पत्तों के उगने से पहले ही खिलते हैं। मैं सिर्फ़ तेरह साल की थी। मेरे प्यार में यौवन की मादकता अभी टपक नहीं पाई थी। मेरा प्यार उस अबोध बाल विधवा के प्यार की तरह था, जिसे अपने पति के  ध्यान में अपना बाक़ी जीवन बिताना हो। पर उस बाल विधवा के प्यार में विवशता है और अपने समाज के लिए कटुता और द्वेष। और लोगों की क्या मजाल है कि उसके आगे उसके पति की कोई निन्दा करे। चाहे उसको अपने पति के दर्शन भी अच्छी तरह न हुए हों; पर उसपर उसका समग्र अधिकार है। सारी दुनिया जानती है कि वह मृत व्यक्ति उस बाल विधवा का पति था। किस अधिकार से उसके साथ अपनी तुलना करती हूँ? पर मैं वैसे तो दुनिया के आगे वह मेरा कुछ भी नहीं लगता था- वह तो मुझे जानता भी न था; पर मैं उसको जानती थी। मैं उसका नाम प्यार के मारे जरा जोर से भी नहीं ले सकती थी। उस प्यार को हृदय मन्दिर में छिपाकर पोषण करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही न था।

एक बार की घटना मैं कभी नहीं भूल सकती। मैं उन दिनों आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। स्कूल और कालेजों में उच्च-श्रेणी की लड़कियाँ निम्न-श्रेणी की लड़कियों पर खूब रोब जमाती हैं। उनकी हर बात में हाँ मिलाना पड़ता है| उच्च-श्रेणी की लड़कियों से दोस्ती करना गौरव समझा जाता है। मैं स्वभाव से बड़ी लजीली थी। मैं कभी बड़ी लड़कियों के आगे जाती, तो मेरे मुँह से आवाज़ ही न निकलती थी। हाँ, अपने बराबर की लड़कियों से मेरी अच्छी तरह बनती थी।

एक दिन दसवीं और नौवीं श्रेणी की लड़कियाँ मिलकर उसकी चर्चा कर रही थीं। मैं भी वहीं पर थी।  मैं भी उन लोगों की बात में दिलचस्पी लेने लगी। मेरे कान गरमागरम हो उठे, हृदय बुरी तरह धड़क रहा था। मेरे मुँह का रंग गिरगिट की तरह चढ़ता और उतरता था। परमात्मा को धन्यवाद है कि उस वक्त किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। सभी बातें करने में लगी थीं। बातों के प्रसंग में एक लड़की बोल उठी—“मैं मानती हूँ कि वे सुयोग्य कवि हैं; पर वे एकदम अकर्मण्य हैं। लिखते तो हैं हज़रत देशभक्ति पर और गरीब किसानों की दुर्गति पर; पर आप रहते कहाँ हैं, ज़रा जाकर देखिये। वे एक महाराजकुमार की तरह रहते हैं। कुछ काम तो करना नहीं है। बस, जब मर्जी आती है, कलम लेकर घसीट मारते हैं। और उनकी लेखनी सबसे पहले दौड़ती है किसानों की दुर्गति पर! यदि मैं कल उनको हल जोतने के लिए कहूँ, तो उनकी कविता भाग जाए। हमें ऐसे कवियों की जरूरत नहीं। आजकल देश को कर्मण्य लोगों की जरूरत है।"

मुझसे नहीं रहा गया, मैं गरज उठी-- "बस, रहने भी दो।" सबकी सब मेरी ओर देखने लगीं। मेरा मुँह गुस्से के मारे तमतमा रहा था। मैं बोलती गई--"यहाँ पर बैठे-बैठे किसी की टीका-टिप्पणी करना बहुत आसान बात है। आप लोग अकर्मण्यता पर व्याख्यान दे रही हैं; पर आप लोगों में कितनी कर्मण्यता भरी पड़ी है? क्या आप लोग समझती हैं कि हल जोतने से आदमी कर्मण्य बन जाता है? दुनिया में जितने प्रसिद्ध कवि हुए हैं और जिन्होंने 'मास्टरपीस' कविताएँ लिखी हैं, वह सब क्या कर्मण्य थे? कवि लोग जनता के प्रतिनिधि हैं।  जनता की मूकवाणी में विचार भरकर गाते हैं। आप चाहती हैं कि सबके सब ढोल पीटें और कोई गाये नहीं।"

न-जाने मैं इतनी बातें किस तरह बक गई। मेरी आँखों में आँसू आ गये। मैंने कहा-- "आप लोगों को उनके बारे में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। वे एक महान कवि हैं।"

फिर मैं फूट-फूटकर रोने लगी। वहाँ कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। सबको मेरी इस स्वतन्त्रता पर आश्चर्य हो रहा था। कहाँ तो मैं बुद्ध समझी जाती थी और कहाँ अपने से उच्च-श्रेणी की लड़कियों के साथ इस तरह प्रगल्भता के साथ बोलना! आश्चर्य के मारे सब मुँह बाये मेरी ओर देखने लगीं।

कुछ देर के बाद वही लड़की, जो इस प्रिय प्रसंग का कारण थी, बोल उठी--"बस-बस, बहुत ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं। हम तुमसे ज्यादा जानती हैं। आखिर उसके नाम पर रोने की क्या जरूरत है? वह तुम्हारा क्या लगता है?"

मैं शर्म के मारे जमीन में गड़ गई। बाक़ी लड़कियाँ ठहाका मारकर हँसने लगीं। एक लड़की, जिसकी आँखों से शरारत टपक रही थी, मेरे पास आकर बोली-- “तुम्हारी जैसी भक्तिन को पाने वाले वह कवि महाशय सचमुच धन्य हैं। उनकी तरफ़दारी लेकर वकालत करने में तुम बहुत कुशल हो।"

मेरा मन अपमान और रोष के मारे जल उठा। दिल में आया कि मैं सबको मार डालूँ। ये सब मेरी मीठी स्मृति को कलुषित करने पर तुली हैं; पर मैं अपमान के खून की घूँट चुपचाप पी गईं। मैं वहाँ से उठकर घर चली आई।  मुझे काफ़ी देर तक उनकी हँसी सुनाई देती रही। वही शरारत की पुतली न जाने क्या-क्या कहकर पुकार रही थी।
घर आते ही अम्मा ने पूछा--"आज इतनी जल्दी क्यों लौट आई?"

पहले तो मैंने कोई जवाब न देकर इस बात को टालना चाहा; पर वे न मानीं। मेरे हृदय का बाँध टूट गया, और मैंने बिलख-बिलखकर रोते हुए उनसे सारा किस्सा कह सुनाया। अम्मा ने मुसकराते हुए कहा-- "अरे पगली, इसमें रोने की क्या बात है? हरएक कवि में कुछ-न-कुछ दोष होता ही है। आखिर वे भी हमारे-जैसे आदमी हैं। कवि और लेखक सर्वसाधारण की सम्पत्ति हैं। हर कोई उनकी बातें कर सकता है।"

मैंने कहा--"अम्मा, पर मेरे कवि के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता।“

अम्मा. गम्भीर हो गई और बोली--"मन्ना, तुम्हें इस तरह नहीं बोलना चाहिए। अब तुम सयानी होती जा रही हो।"

मुझे ऐसा लगा कि मानो मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया हो। आखिर अम्मा भी मेरे बारे में ऐसा सोच रही हैं! मेरा वह प्यार कैसा था! शीतल चाँदनी की तरह पवित्र। उस प्यार में सांसारिकता की जरा भी गन्ध न थी। थी तो सिर्फ संलग्नता थी, भक्ति थी। जैसे भगवान की प्रशंसा सुनकर भक्त उसकी कल्पना में तल्लीन हो जाता है, कुछ वैसी ही दशा मेरी थी। मेरे मन में एक अजीब जाग्रति पैदा हो गई। आखिर मेरा भगवान आदमी है। एक निराकार अव्यक्त मूर्ति की कल्पना को प्यार करना आसान है; पर भौतिक वस्तु को प्यार करने में बहुत सावधान होना चाहिए। दुनिया तो एक जवान आदमी और एक जवान लड़की के प्यार का इसी तरह अन्दाज्ञ लगायेगी ही। परमात्मा को धन्यवाद है कि पिताजी की बदली हो गई, क्योंकि उस दिन से मेरा उस स्कूल में निबाह मुश्किल हो गया था।

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जब मैं दसवीं क्लास में पढ़ती थी, तो कवि के प्रथम दर्शन हुए। हमारे स्कूल की ओर से उनके आगमन के उपलक्ष में एक सभा की गई थी। मैं स्कूल के साहित्य संघ की सेक्रेटरी थी। मैंने आयोजना में कोई कमी नहीं रखी थी। हॉल लोगों से खचाखच भरा था। कवि मुझसे काफी दूरी पर बैठे कविताएँ पढ़ रहे थे। मैं मन्त्रमुग्ध की तरह उनकी ओजस्वितापूर्ण वाणी सुनती रही थी। उसके बाद सभापति महोदय ने उनकी रचनाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की। मेरा रोम-रोम आनन्द के मारे फड़क रहा था। सभापति महोदय ने भाषण समाप्त करने के पहले फूलों की मालाएँ लेकर कहा--"मैं अब आप लोगों के इच्छानुसार कवि महोदय तथा उनकी पत्नी का सत्कार करता हूँ। आप दोनों ने यहाँ पधारकर बड़ी कृपा की है।"

मेरे ऊपर मानो बिजली गिर पड़ी। मेरे सारे शरीरका रक्त सूख गया। माँखों के आगे अँधेरा छा गया। सभापति महोदय न जाने क्या-क्या बड़बड़ा गये और न जाने कितनी देर तक मैं मूक बैठी रही। लोगों ने तालियाँ बजाना शुरू किया, तब मैं एकाएक होश में आई। मैंने देखा कि औरतों के बीच से उठकर एक युवती प्लैटफार्म की तरफ आ रही है। तालियाँ और भी ज़ोर से बज उठीं। मैं अभी उसे अच्छी तरह देख भी न सकी थी कि एक आदमी ने मेरे पास आकर कहा--"सभापतिजी चाहते हैं कि आप कवि-वधू के गले में हार पहनावें।"

मैं तुरन्त उठ खड़ी हुई। शरीर में ताक़त न थी। गला सूख रहा था। किसी तरह मैं प्लैटफार्म पर चढ़ गई और कवि--पत्नीके गले में माला पहनाई। फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गई। तालियाँ बज रही थीं। अब मैं कुछ स्वस्थ्य हो गई थी। मैं कवि—पत्नी की ओर जरा ध्यान से देखने लगी--"अरे, यह क्या! यह तो वही है!”

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मैं घर पर लेटी हुई थी। अम्मा पास बैठी पंखा कर रही थीं। मेरे आँखें खोलने पर अम्मा मेरे माथे पर हाथ फेरती हुई कहने लगीं-- "मन्ना, अब तुम्हारा जी कैसा है?"
मैंने कहा-– “पानी।" पानी पीने के बाद मन ज़रा स्वस्थ्य हो गया। अम्मा प्यार से पूछने लगी--“मन्ना, अचानक तुम्हें यह क्या हो गया था?"

मैंने कहा-- "मालूम नहीं, बड़ी गरमी थी, बड़ी भीड़ थी।"

अम्मा ने कहा-- "ठीक है।" अम्मा से पता चला कि मेरी बेहोशी से लोगों में कोई खलबली नहीं मची। मेरे बेहोश होते ही कुछ लोगों ने मुझे घर पहुँचा दिया। मैंने मन-ही-मन परमात्मा को धन्यवाद दिया। अम्मा मुझे कुछ स्वस्थ जानकर रसोईघर में चली गईं। मुझे बड़ी कमजोरी मालूम पड़ती थी, दिमाग बहुत जोर-शोर से काम कर रहा था और दिल बुरी तरह धड़क रहा था। “आखिर वही लड़की... आँखों में शरारत टपक रही थी..पर अब विजय...गर्व..."

थोड़ी देर बाद आँखें खुलीं, तो देखा कि डाक्टर साहब पास बैठे हैं और अम्मा बड़ी उदास हैं। डाक्टर न जाने अम्मा से क्या कह रहा था। मैं सोचने की कोशिश कर रही थी; पर सोचते ही सिर में दर्द होता था। डाक्टर ने यह कहकर छुट्टी ली कि मैं कुछ 'नर्वस' हूँ,  हफ्ते-भर तक बिस्तरे पर पड़ी-पड़ी आराम करूँ।

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आजकल मैं बी० ए० के दूसरे साल में पढ़ रही हूँ। कभी अपनी किशोरावस्था की घटना पर सोचने लगती हूँ— आखिर मैं बेहोश क्यों हुई थी? तो मैंने शुरू से ही अपने-आपको धोखा दिया था?  मेरा प्यार दैविक नहीं था! उसमें सांसारिकता की गन्ध आ गई थी? यदि मैं निर्लिप्त भाव से उसकी पूजा करती थी, तो उसके किसी भी लड़की के साथ शादी करने से मेरा क्या बिगड़ता?  क्या मेरे प्यार में उसे पाने की इच्छा गुप्त रीति से छिपी थी?

मनोविज्ञान के आचार्य फ्रायड के कथनानुसार मेरा प्यार भी स्वार्थमय निकला!

मैं आजकल कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या मैं अब भी उसे प्यार करती हूँ?  मन कहता है-– “नहीं।" प्रेम के उस पौधे में-- जिसे मैंने हृदय के 'ग्लास हाउस' ( Glass house ) में संसार की धूप-सरदी से बचाकर बहुत ही लाड़-प्यार से पाला था—जब अंकुर निकले, तो एक गिलहरी ने आकर उसे जड़ से कुतर डाला। बस, यहीं उसकी अधूरी समाप्ति हो गई।

-कुमारी राजरानी

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