हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
 

पैसा (काव्य)

Author: डॉ. परमजीत ओबराय

पैसे के पीछे -
मनुष्य भाग रहा ऐसे,
पकड़म-पकड़ाई का खेल –
खेल रहा हो जैसे।

पुकार रहा –
उसे,
आ-आ छू ले मुझे।
सुन उसकी ललकार-
मानव है,
पाने को उसे बेकरार।

करता जबकि यही-
भेदभाव,
सम्बन्धों का बन रहा-
आज यही आधार।

अपने लगने लगे-
सब इसके,
समक्ष अब पराए।

संसार से आगे-
साथ न यह,
दे पाए।

माना पैसा ज़रूरी है-
जीने के लिए,
पर सब कुछ नहीं है-
यह हमारे लिए।

-डॉ. परमजीत ओबराय

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