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साधना | गद्य काव्य (विविध) |
Author: वियोगी हरि
अब वे हँसते हुए फूल कहाँ! अपने रूप और यौवन को प्रेम की भट्टी पर गलाकर न जाने कहाँ चले गये। अब तो यह इत्र है। इसी में उनकी तपस्या का सिद्धरस है। इसी के सौरभ में अब उनकी पुण्यस्मृति
का प्रमाण है। विलासियो! इसी इत्र को सूँघ-सूँघकर अब उन खिले फूलों की याद किया करो।
अब मेंहदी के वे हरे लहलहे पत्ते कहाँ! अपने रूप और यौवन को प्रेम की शिला पर पिसाकर न जाने कहाँ चले गये। अब तो यह लाली है। इसी में उनकी साधना का सिद्धरस है। इसी लाली में अब उनकी पुण्यस्मृति का प्रमाण है। विलासियो ! इसी लाली को अपने तलुओं और हथेलियों पर देख देख कर अब उन हरे लहलहे पत्तों की याद किया करो।
अब सीप के वे अनबेधे दाने कहाँ! अपने सरस हृदय को प्रेम के शूल से छिदाकर न जाने उन्होंने क्या किया। अब तो उन घायलों की यह माला है। इसी में उनकी भावना का सिद्ध रस है। इसी सुषमा में अब उनकी पुण्यस्मृति का प्रमाण है। विलासियो ! इसी माला को अपने कण्ठ से लगाकर अब उन अनबेधे दानों की याद किया करो।
-वियोगी हरि