जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

लोग उस बस्ती के यारो | ग़ज़ल (काव्य)

Author: सुरेन्द्र चतुर्वेदी

लोग उस बस्ती के यारो, इस कदर मोहताज थे
थी ज़ुबां ख़ुद की मगर, मांगे हुए अल्फ़ाज़ थे

काँच को ओढ़े खड़ी थी उस शहर की रोशनी
जिस शहर के लोग सब के सब निशानेबाज थे

वह सड़क थी या तवायफ का कोई अहसास थी
जिस सड़क पे आते-जाते लोग, बे-आवाज़ थे

लौट कर आए नहीं खुशियाँ जो लेने को गए
वो किसी अन्धे सफर का बेरहम आगाज थे

आदमी होते तो चेहरा छील कर पहचानते
उस शहर के लोग किन्तु सिर्फ कच्ची प्याज थे

'मूल' की हम खोज में, फाँसी के फंदे तक गए
मर गए वो मूल थे, जो बच गए वो ब्याज थे

काफिए थे वो मेरी ग़ज़लों के यारो सब के सब
जिनके हर लम्हे में शामिल दर्द-बे-अंदाज़ थे

-सुरेन्द्र चतुर्वेदी

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश