भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
 

चाहा कितनी बार कहूँ मैं (काव्य)

Author: राकेश खंडेलवाल

चाहा कितनी बार कहूँ मैं, कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
पर अधरो तक आते आते अक्सर शब्द लड़खड़ा जाते

मन के भाव कहो कब किसके शब्दों में बंधने पाए हैं
उनका है विस्तार असीमित मुट्ठी भर शब्दों की क्षमता
कितने युग बीते कोशिश में सती कथा से मेघदूत तक
ढाई अक्षर अंतहीन है कैसे व्यक्त कोई कर सकता

ग़ालिब मीरा विद्यापति से संत क़बीरा की वाणी तक
रही अधूरी एक कहानी बरसो बीते जिसको गाते

गौतम को जब मिली अहल्या शिव ने देखा प्रथम सती को
उर्वशी से नज़रें टकराई राहों में जब पुरुरवा की
रति अनंग के सम्बंधी को बांधे जो अनदेखे धागे
उनकी करें व्याख्या, सम्भव शब्दों से कब हुआ ज़रा भी

भाव सिंधु की हिल्लोलित किल्लोलित लहरें उमड़ा करती
शब्दों के बन रहे घरोंदे उनसे टकरा कर बह जाते

रितु बसंत में जमना तीरे गूँज रही बंसी की धुन पर
पाँव बंधी पैंजनिया अपने मृदु सुर जो गीत सुनाती
वह अनुभूति व्यक्त पाने में रह गई सदा ही अक्षम
और लेखनी रह जाती है बस हाथों में बल ही खाती

कोशिश करते करते निशि दिन स्वर रहता है घुटा कंठ में
सुर सारे ही बिखर गए हैं सरगम का द्वारा खड़काते

-राकेश खंडेलवाल

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