जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

ज़हन में गर्द जमी है--- (काव्य)

Author: ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

तुम बहुत सो चुके हो जगिए भी तो सही,
ज़िंदा हो अगर ज़िंदा लगिए भी तो सही।

बस पानी उड़ेलने को नहाना नहीं कहते,
ज़हन में गर्द जमी है मलिए भी तो सही।

तुम शमा बन गए हो अलग बात है मगर,
दीप्ती के लिए थोड़ा जलिए भी तो सही।

मन के तज़क़िरे से कोई भला नहीं होता,
कुछ क़दम साथ मेरे चलिए भी तो सही।

माना कि एक आलिम बन गए हो मगर,
रब्बुल-आला-मीन से डरिए भी तो सही।

ये सच है कि बाज़ार में क़ीमत नहीं कोई,
मगर सच के सांचे में ढलिए भी तो सही।

जिसका बुरा मानकर तर्के ताल्लुक हुआ,
वो ख़त मेरा खोलकर पढ़िए भी तो सही।

माना कि स्वर्ग से सुन्दर नहीं है कुछ भी,
मगर इसको पाने को मरिए भी तो सही।

ये ज़ुबां चलाना ही सब कुछ नहीं ज़फ़र,
हवा बदलने को कुछ करिए भी तो सही।

-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
 एफ-413,
 कड़कड़डूमा कोर्ट,
 दिल्ली-32
 ईमेल : zzafar08@gmail.com

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश