जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

दो पल को ही गा लेने दो (काव्य)

Author: शिवशंकर वशिष्ठ

दो पल को ही गा लेने दो।
गाकर मन बहला लेने दो !
कल तक तो मिट जाना ही है;
तन मन सब लुट जाना ही है ;
लेकिन लुटने से पहले तो--
अपना रंग जमा लेने दो ।
दो पल को ही गा लेने दो।
गाकर मन बहला लेने दो !

फूल खिलखिला कर हँसते हैं,
फिर तो काँटे ही धंसते हैं;
काँटों से पहले फूलों को---
कुछ शृंगार सजा लेने दो।
दो पल को ही गा लेने दो।
गाकर मन बहला लेने दो!

जीवन क्या है ? इक सपना है,
सपने में सब कुछ अपना है;
अपनेपन की इन घड़ियों में
लघु संसार बसा लेने दो।
दो पल को ही गा लेने दो।
गाकर मन बहला लेने दो!

-शिवशंकर वशिष्ठ
[गीली आँखें गीले गीत, 1958, दिल्ली पुस्तक सदन]

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