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मंज़िलों की खोज में तुमको जो चलता सा लगा (काव्य) |
Author: संजय ग्रोवर
मंज़िलों की खोज में तुमको जो चलता सा लगा
मुझको तो वो ज़िन्दगी भर घर बदलता सा लगा
धूप आयी तो हवा का दम निकलता सा लगा
और सूरज भी हवा को देख जलता सा लगा
झूठ जबसे चाँदनी बन भीड़ को भरमा गया
सच का सूरज झूठ के पाँवों पे चलता सा लगा
मेरे ख्वाबों पर ज़मीनी सच की बिजली जब गिरी
आसमानी बर्क क़ा भी दिल दहलता सा लगा
चन्द क़तरे ठन्डे क़ागज़ के बदन को तब दिए
खून जब अपनी रगों में कुछ उबलता सा लगा
- संजय ग्रोवर
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वो मेरा ही काम करेंगे
जब मुझको बदनाम करेंगे
अपने ऐब छुपाने को वो
मेरे क़िस्से आम करेंगे
क्यों अपने सर तोहमत लूं मैं
वो होगा जो राम करेंगे
दीवारों पर खून छिड़क कर
हाक़िम अपना नाम करेंगे
हैं जिनके किरदार अधूरे
दूने अपने दाम करेंगे
अपनी नींदें पूरी करके
मेरी नींद हराम करेंगे
जिस दिन मेरी प्यास मरेगी
मेरे हवाले जाम करेंगे
कल कर लेंगे कल कर लेंगे
यूँ हम उम्र तमाम करेंगे
सोच-सोच कर उम्र बिता दी
कोई अच्छा काम करेंगे
कोई अच्छा काम करेंगे
खुदको फिर बदनाम करे
- संजय ग्रोवर
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