जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर  (काव्य)

Author: राकेश पाण्डेय

उन गिरमिटियों की श्रमसाधना को समर्पित जिनके कारण आज हिंदी विश्वभाषा बनी।

गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर
बन गए राखी-रोली चन्दन
माथ लगाते गिरमिटिया
कंठ-कंठ करते वंदन

गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर
बन गए राखी-रोली चन्दन

हिंदी हुई मात-भ्रात सबकी
जन से जन का मेल कराए
द्वेष क्लेश निर्मूल करे
सबको मिलता स्नेह स्पंदन
गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर
बन गए राखी-रोली चन्दन

कोड़ों की भाषा का स्वर हैं
लाल पसीने का सागर
हिंदी बनी आत्मबल सबका
ईख ईख हो जाती नंदन

गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर
बन गए राखी-रोली चन्दन

धन्य हो गाँधी,धन्य रामगुलाम
हिंदी का ध्वज तुमने थामा।
विश्व हिंदी हुई अविरल अविराम
हिंदी-हिंदी का है नभ में गुंजन

गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर
बन गए राखी-रोली चन्दन

- राकेश पाण्डेय
संपादक, प्रवासी संसार

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश