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खामोशियाँ (काव्य) |
Author: राधा
खामोशियों का दौर इस कदर बढ़ गया है
शब्द होंठों पर आए बिना ही इस मन में दब गया है
क्योंकि शब्दों से आज कल रूठने का रिवाज इस कदर बढ़ गया है,
किसी को कुछ भी बोलना जैसे खुद पर ही भारी पड़ गया है।
खामोशियों में हो रही इस दिल और दिमाग की जंग
देखो कहाँ तक लेकर जाती है
और मन की इन उलझनों को कैसे सुलझाती है?
अब वो दिन भी दूर नहीं जब ये उलझनें सुलझ जाएंगी,
और हर मुश्किलों से लड़ने की समझ आ जाएगी।
खामोशियों के अलफाज नहीं होते
और बोलने से ही सब काज नहीं होते
अब तो मन ने यह ठानी है
बिना बोले ही
ज़िंदगी अंजाम तक पहुंचानी है।
- राधा , अवर श्रेणी लिपिक
राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण
दिल्ली, भारत।
ई-मेल - radhaparag@gmail.com