कुछ और नहीं है चाह मुझे ......बन गुलाब मुस्कराओ तुम, ......हर ओर सुरभि फैलाओ तुम , ......आशा के दीप जलाओ तुम , ......जीवन की राह दिखाओ तुम , हे ! मन -मीत सवाँर मुझे ..........कुछ और नहीं है चाह ...
मृगतृष्णा सा मन भटक रहा , छाया को ही है पकड़ रहा , चातक सा है वह विकल रहा , होरिल सा लकड़ी ढूंढ रहा , ....बन हम -राज उबार मुझे ........कुछ और नहीं है चाह .....
अपनों ने ही ना पहचाना , हर ओर बना है अफ़साना , क्या करे बना मन बीराना , क्या बुने सुनो ताना -बाना , ....इस लिए मुझे दे सार मुझे .....कुछ और नहीं है चाह
टूट कही ना जाऊं मैं , पथ से ना कहीं हट जाऊं मैं , उलझा -दिग्भ्रमित समाज अहो , उसमें ना कहीं फंस जाऊं मैं , ....इस लिए मीत दे प्यार मुझे ......कुछ और नहीं है चाह ....
- कमलेश कुमार वर्मा ई-मेल: kamleshrajpati@gmail.com
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