भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
खेत में तपसी खड़ा है (काव्य)  Click to print this content  
Author:भैयालाल व्यास

खेत में तपसी खड़ा है।
हाथ की ठेठे बतातीं,
भाग्य से कितना लड़ा है! खेत में तपसी खड़ा है।

रवि-करों ने ताप में भर,
श्यामता पोती बदन पर,
किन्तु मन पर आज तक,
कब कालिमा का रंग चढ़ा है ? खेत में तपसी खड़ा है।

लपलपाती लू की लपटें,
चौमुखी झकझोर झपटें,
बढ़ रहीं पर बन अटल,
तट सा थपेड़ों में अड़ा है। खेत में तपसी खड़ा है।

आग मनमानी लिए है,
आँख में पानी लिए है,
आग-पानी मिल रहे,
विस्फोट का भय अति बढ़ा है ? खेत में तपसी खड़ा है।

आज आँगन में जगत के,
धूप का पहरा कड़ा है। खेत में तपसी खड़ा है।

कोई यदि हद लाँघता है,
तुरत पानी माँगता है,
साधना की मूर्ति पर,
मजदूर ज्वाला से लड़ा है। खेत में तपसी खड़ा है।

आ रहा बेहद पसीना,
हो रहा दुश्वार जीना,
खून को पानी बना कर,
भर रहा जग का घड़ा है। खेत में तपसी खड़ा है।

दण्ड उसके हाथ में है,
न्याय का बल साथ में है,
अन्याय सहने को मगर,
ध्रुव-धीर का सीना बड़ा है। खेत में तपसी खड़ा है।

खेत में तपसी खड़ा है॥

-भैयालाल व्यास

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