गरुड़ पक्षियों का राजा है। ऊँचे आकाश में वह विहार करता है। बेचारी मधु-मक्खी, छोटी-सी जान! दिन भर इधर-उधर भटककर रस इकट्ठा करती है। एक बार जब गरुड़ पानी पीने पृथ्वी पर उतरा, दोनों की भेंट हुई।
गरुड़ बोला--"मधुमक्खी, तेरा भी क्या जीवन है? वसंत ऋतु-भर तू डाल-डाल और फूल-फूल पर मारी-मारी फिरती है। बूंद-बूंद रस जमा कर छत्ता लगाती है, वह भी दूसरों के लिये! मेरा जीवन देख, ऊँचे आकाश में सदा विचरता रहता हूं। कोई भी पक्षी मुझसे ऊँचा या तेज नहीं उड़ सकता। मैं जब चाहूं, जिसके हाथ में से उसका आहार छीन लूं।"
मधु-मक्खी ने उत्तर दिया--"ठीक है, महाराज! यह ऊँचा पद आप ही को शुभ हो। मुझे इसका लोभ नहीं कि ऐसी ऊँची उड़ूँ या दूसरों का आहार छीन-कर खाऊँ। मुझे तो परिश्रम करना ही भला लगता है। कठिन परिश्रम कर मैं मधु इकट्ठा करूँ, और वह दूसरों के काम आए, इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है?"
वास्तविक महत्ता बल-कीर्ति अथवा किसी से जबर्दस्ती छीन लेने में नहीं है। साधारण, सरल जीवन अपनाकर परोपकार करना और ऐसा करने में जो श्रम पड़े, उसे हँसते-हँसते झेलना, यही सच्चा बड़प्पन है। |