भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
सच बोलनेवाला चोर  (बाल-साहित्य )  Click to print this content  
Author:तुलसी देवी दीक्षित

एक पंडित के जब कोई लड़का होता, तो वे पहले ही से उसका भविष्य बतला देते थे। एक लड़के के संबंध में उन्होंने अपनी श्री से बतलाया कि वह चोर होगा। लड़का पढ़ने में बड़ा होशियार था। इससे लोग उसे शास्त्रीभी कहते थे । जब वह बड़ा हुआ, तो उसका विवाह करके, उसके माता-पिता तीर्थ-यात्रा करने चले गए।

शास्त्रीजी पढ़े-लिखे तो खूब थे पर उनके घर में प्रत्यक्ष दरिद्रता का वास था। पहनने के लिये उनके पास एक लँगोटी को छोड़कर और कुछ न था। 

घर में स्त्री के पास भी चीथड़ों के अतिरिक्त और कुछ न था। खाने के लिये अतरे-दुतरे कुछ मोटा-झोटा मिल जाता था। 

इस प्रकार कष्ट उठाते शास्त्रीजी को बहुत दिन बीते पर उनकी दशा न सुधरी। उन्होंने सोचा कि अब जैसे बने, इन कष्टों को दूर करने का यत्न करना चाहिए। एक दिन आप अपनी धर्मपनी से बोले--"अब तो नहीं सहा जाता। दरिद्रता दूर करने का आज कोई उपाय करूँगा।" 

स्त्री--"क्या करोगे?" 

शास्त्रीजी--"क्या करूँगा। आज रात को चोरी करूँगा।" 

स्त्री--"पर चोरी करना तो बुरा है। अच्छा, किसके यहाँ चोरी करोगे?" 

शास्त्रीजी--"राजा के यहाँ चोरी करूँगा।" पंडिताइन ने बहुत मना किया, पर वह न माना, और रात के समय राजमहल की ओर चल पड़ा। 

महल के फाटक पर संगीन-धारी संतरी टहल रहे थे। शास्त्रीजी को जाते देख, उन्होंने पुकारा--"कौन?" 

शास्त्रीजी--"हम हैं. चोर।" 

संतरी--"चोर! हमारे रहते चोर क्या महल में घुस सकता है?" 

शास्त्रीजी--"यदि न जाने दोगे, तो लौट जाऊँगा।" 

संतरी समझे कि चोर तो इस प्रकार बातें करेगा नहीं। इसमें कोई भेद अवश्य है। संभव है, राजा के बुलाने से यह महल में जा रहा हो। कहीं ऐसा न हो कि इसके लौट जाने से राजा हम पर अप्रसन्न हों। यह सोचकर उन्होंने उसे भीतर जाने से न रोका। 

शास्त्रीजी भीतर पहुँचे। राजा के सोने के कमरे में पहुँचकर उन्होंने देखा कि राजा पलंग पर पड़े सो रहे हैं, और सिरहाने चाभियों का गुच्छा रक्खा है। फिर क्या था, शास्त्रीजी ने वह गुच्छा ले लिया; और लगे संदूक खोलने। एक संदूक में उन्हें रत्न-ही-रत्न दिखलाई दिए। कपड़ा तो उनके पास था ही नहीं, इससे सोचने लगे कि इन्हें किस प्रकार ले चलें। इतने में उन्हें स्मरण हो आया कि रत्नों की चोरी तो शास्त्र में बड़ा भारी पाप समझा गया है। इससे उन्होंने रत्नों को ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया। 

आगे बढ़कर अशर्फियाँ देखीं पर सुवर्ण की चोरी पाप समझ उन्होंने उन्हें भी न छुआ। इसप्रकार जो चीज देखते, उसके संबंध में उनके दिल में इसी प्रकार के खयाल उठने लगते। अंत में वे एक स्थान पर बैठकर सोचने लगे कि यदि कोई ऐसी वस्तु मिले, जिसकी चोरी शास्त्रकारों ने बुरी न बतलाई हो, तो अच्छा हो। निदान ढूँढते-ढूँढते एक छत पर उन्हें चावलों की भूसी का ढेर नज़र आया। आपने स्मरणशक्ति पर बहुत कुछ जोर डाला, पर भूसी की चोरी के विरुद्ध किसी शास्त्रकार की राय याद न आई। इससे आप एक बड़े झाबे में खुशी-खुशी भूसी भरने लगे। उधर राजा की किसी कारण आँख खुल गई। उसे मालूम पड़ा कि छत पर कोई है। राजा तलवार लेकर बाहर आया, तो क्या देखता है कि एक आदमी झाबे में भूसी भर रहा है। जब शास्त्रीजी ने राजा को देखा, तो बोल उठे--"जय हो राजन्! अच्छे अवसर पर आ गए। मैं सोच ही रहा था कि यह झाबा ठवावेगा कौन? अब काम बन जाएगा। 

राजा--"तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?" 

शास्त्रीजी-“मैं हूँ चोर, और आपके यहाँ चोरी कर रहा हूँ।" 

राजा--"तुमको हमारे यहाँ भूसी से बढ़कर और कोई चीज़ चोरी करने को मिली ही नहीं?" 

शास्त्रीजी-"मिली तो बहुत चीजें, पर उनका चुराना धर्म-विरुद्ध था; इससे उन्हें नहीं चुराया। आपके मणि-माणिक और अशर्फियों को देखकर मैंने ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया।" 

राजा इस अद्भुत चोर को देखकर बहुत चकराया। उसकी समझ ही में न आया कि क्या करें। अंत में बहुत सोच-विचार के बाद वह उसे एक सुसज्जित कमरे में ले गया, और बोला--"आज रात-भर यहीं तुम कैद रहो। कल तुम्हारा फैसला होगा।" 

अगले दिन राजा जब दरबार में बैठा, तो उसने पहले शास्त्रीजी को ही बुलवाया। फिर उनकी ओर इशारा करके अपने दरबारियों से बोला--"आप जिस व्यक्ति को सामने देखते हैं, बड़ा ही अद्भुत चोर है। कल रात को यह हमारे महल में धान की भूसी की चोरी करने के लिये आया था।" 

सबसे पहले पहरेवालों के बयान लिए गए। 

उन्होंने शास्त्रीजी की ओर इशारा करके कहा--"कल रात को यह आदमी राजमहल के फाटक पर आय । हम लोगों ने पूछा--'कौन? तो बोला--हम हैं चोर।' 

हमने दिल में सोचा कि कोई चोर इस प्रकार अपने को चोर थोड़े ही कहेगा; इस कारण हम समझे कि इसने हँसी की है। हमने यह भी समझा कि शायद हुजूर ने इसे किसी कार्यवश बुलाया हो, इससे उसे फाटक पर नहीं रोका। 

इसके बाद शास्त्रीजी से उनके मकान का पता पूछकर कुछ सिपाही उनके घर भेजे गए, और उनसे कहा गया कि घर में जो कोई हो, उसे दरबार में सादर बुला लाओ। थोड़ी देर में उन लोगों ने लौटकर कहा--"हुजूर इसके घर पर इसकी स्त्री के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जब मैंने आपकी आज्ञा कह सुनाई, तो उसने कहा--"मेरे पास कपड़े ही नहीं हैं; मैं किस प्रकार बाहर निकल सकती हूँ?" 

राजा ने कहा--"खैर, उसके आने की कोई आवश्यकता नहीं।" 

फिर राजा ने अपने मंत्री से पूछा--"आपकी राय में ऐसे चोर को क्या दंड देना चाहिए।" 

मंत्री ने कहा--"मेरी समझ में इसे यों ही डॉट-फटकारकर छोड़ देना चाहिए, और इसे साफ-साफ बतला देना चाहिए कि यदि यह फिर कभी महल में आया, तो अवश्य दंड पावेगा।" 

राजा ने कोषाध्यक्ष को बुलाकर कहा--"एक हज़ार अशर्फियाँ अभी लाकर इस चोर को गिन दो।" फिर शास्त्रीजी की ओर घूमकर कहा--"तुम्हारे अपराध की यही सज़ा है।" 

शास्त्रीजी अशर्फियाँ लेकर खुशी-खुशी घर गए।

-तुलसी देवी दीक्षित
[1928]

Previous Page  |  Index Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश