भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
मैं अकेला और भी... (काव्य)  Click to print this content  
Author:ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

मैं अकेला और भी मजबूर होकर बैठ गया,
जिसे भी सच कह दिया दूर होकर बैठ गया।

मन की जो कलियां थीं सब चटकती रह गईं,
मैं क्या कहूं उससे नशे में चूर होकर बैठ गया।

कोई उम्मीद क्या रखे उससे खेल के मैदान में,
दो क़दम चलते ही जो माज़ूर होकर बैठ गया।

मैंने ज़िन्दगी लगा दी डिग्रियां लेने में लेकिन,
वो दो अक्षर पढ़ते ही मग़रूर होकर बैठ गया।

मैं मरहम के पौधों को पानी देता रहा गया,
ख़ंज़र मेरी हसरत में दस्तूर होकर बैठ गया।

कुछ अंधेरे इसलिए भी साथ में रहने लगे,
चांद सा चेहरा था जो हूर होकर बैठ गया।

अपने गांव के सरपंच की बाजीगरी को देखकर,
पहले आया गुस्सा फिर काफ़ूर होकर बैठ गया।

किसकी मज़ाल थी मेरी मुस्कान छीन ले मगर,
एक किस्सा ज़िन्दगी में नासूर होकर बैठ गया।

ज़फ़र कैसे जाऊं अब नदी के उस पार तक,
जो घड़ा था पानी से भरपूर होकर बैठ गया।

-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली -32
ई-मेल : zzafar08@gmail.com

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