भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
जिंदगी | गीत (काव्य)  Click to print this content  
Author:प्रभजीत सिंह

एक शाम जिंदगी तमाम हो गई
लेने को पहुंचे जो फरिश्ते
टूट गये सब नाते-रिश्ते,
फिर रोके कुछ रूक नहीं पाया,
हाथ किसी के कुछ नहीं आया
सब देखते रहे, यह बात खुले आम हो गई
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई

कितने थे मंसूबे बांधे,
कितने थे बेबाक इरादे,
हो न सकेंगें अब वो पूरे
रह गये सारे आधे अधूरे,
ज्यों सूरज ढलते ही शाम हो गई,
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई

जिनसे जो कहना सुनना था,
जिनसे जो लेना देना था,
जब कांधे पर छोड़ के आये
कहना था जो कह नहीं पाये
दीवारों पर और एक फोटो आम हो गई
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई

मोह माया है जीवन प्यारे,
मौत के आगे सब हैं हारे,
नेकी भक्ति, अच्छे कर्म,
अब सूझा है इनका मर्म,
जब तन की कोठी नीलाम हो गई

खाया पीया मौज मनाया,
जीवन का आनन्द उठाया,
अंत में कुछ भी साथ न आया,
नाटक रूपी इस जीवन में
‘अमन‘ से किरदार निभाया
अंत में ‘रूह‘ अब गुलाम हो गई
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई

प्रभजीत सिंह
ई-मेल: delhipjs@gmail.com

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