मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
इस महामारी में  (काव्य)  Click to print this content  
Author:डॉ मनीष कुमार मिश्रा

इस महामारी में
घर की चार दिवारी में कैद होकर
जीने की अदम्य लालसा के साथ
मैं अभी तक जिंदा हूँ 
और देख रहा हूँ
मौत के आंकड़ों का सच 
सबसे तेज़
सबसे पहले की गारंटी के साथ।

इस महामारी में
व्यवस्था का रंग 
एकदम कच्चा निकला 
प्रशासनिक वादों के फंदे से
रोज ही 
हजारों कत्ल हो रहे हैं।

इस महामारी में
मृत्यु का सपना 
धड़कनों को बढ़ा देता है
जलती चिताओं के दृश्य
डर को 
और गाढ़ा कर देता है।

इस महामारी में
हवाओं में घुला हुआ उदासी का रंग
कितना कचोटता है ?
संवेदनाओं की सिमटती परिधि में
ऑक्सीजन / दवाइयों की कमी से
हम सब पर
अतिरिक्त दबाव है।

इस महामारी में
सिकुड़े और उखड़े हुए लोग 
गहरी, गंभीर शिकायतों के साथ
कतार में खड़े हैं
बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, अस्पताल से लेकर
शमशान घाट तक।

इस महामारी में
हम सब एकसाथ अकेले हैं
होने न होने के बीच में
सासों का गणित सीख रहे हैं
इधर वो रोज़ फ़ोन कर पूछती है
कैसे हो ?
जिसका मतलब होता है
ज़िंदा हो न ?

- डॉ मनीष कुमार मिश्रा
  के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
  कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र
  ईमेल : manishmuntazir@gmail.com

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