भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
दो ग़ज़लें (काव्य)  Click to print this content  
Author:राजीव कुमार सिंह

लोग सच जान के---

लोग सच जान के झूठों पे फिसलते क्यूँ हैं।
है ज़ुबाँ पास तो अल्फ़ाज निगलते क्यूँ हैं।

जिनकी चाहत ही नहीं कल को सँवारा जाए
पूछते वो हैं मेरा आज बदलते क्यूँ हैं।

तुम ही बतला दो कि वो कैसे सुकूँ पाँएँगे
जिनको है फ़िक्र कि हालात सँभलते क्यूँ हैं।

जो ज़वाबों की तमन्ना में मरे जाते हैं
है अचंभा वो सवालों पे उछलते क्यूँ हैं।

किसको मालूम नहीं आग की फितरत क्या है
फिर भी कुछ लोग यही आग उगलते क्यूँ हैं।

आम लोगों से गुजारिश है कभी तो सोचें
खास इनसान यूँ ही आम को छलते क्यूँ हैं।

-डॉ. राजीव कुमार सिंह
[साभार : मजलिस]

 

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जो भी पहुँचा दिल्ली में---

जो भी पहुँचा दिल्ली में, खुद को बोला- मेरी आवाज
अपनी उससे सुनता हूँ तो, आती है मुझको ही लाज

जिन लोगों ने पाले रक्खी, मेरी अबतक दुख-तकलीफ़
मौका पाकर फिर छेड़े हैं, मेरी धुन पे अपना साज

जब-जब भी लगनी होती है, मेरी मेहनत मेरे हाथ
तब-तब दिखने लगता, नेताओं का घड़ियाली अंदाज

नेता तो नेता होते हैं, उनमें तेरा-मेरा कौन
मन में मुद्दों की अभिलाषा, मुख में गिरगिटिया अल्फाज

जिसकी पीड़ा सबकी पीड़ा, जिसका सुख सबका सुखधाम
उनके भी दुख में दिखता है, कुछ लोगों को अपना राज

जिनकी जिम्मेदारी है, झूठों का करना पर्दाफाश
ताज्जुब यह उनसे ही सबसे ज्यादा पीड़ित है सच आज

मैं खुद की कह सकता खुद से, मत बोलो तुम मेरे साथ
मैंने देखे हैं बहुतेरे, तुमसे बिगड़े बनते काज

मेरी विनती है तुम अपनी, आदत से आ जाओ बाज
तुम भी जाने हो सच में मैं, हूँ किससे कितना नाराज

-डॉ. राजीव कुमार सिंह
 [साभार : मजलिस]

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