खड़ी आँगन में अगर, दीवार न होती ! यूं दिलों के बीच यारा, तक़रार न होती !
महकती इधर भी रिश्तों की खुशबुएँ, गर जुबां की तासीर में, कटार न होती !
न आतीं यूं ज़िंदगी के सफर में आफ़तें, अगर रहबरों के दिल में, दरार न होती !
यहाँ खिलते गुल भी महकता जहाँ भी, गर नीयत बागवां की, शर्मसार न होती !
न अखरता इतना खिज़ाओं का मौसम, अगर दिल में ख़ारों की, भरमार न होती !
न होता पैदा खामोशियों का सिलसिला, अगर नफ़रतों से दुनिया, बेज़ार न होती !
यारो बन जाता आदमी भी देवता अगर, ये दुनिया ख्वाहिशों का, शिकार न होती !
न होती ज़रूरत इधर मुखौटों की "मिश्र", अगर आदमी की आत्मा, बीमार न होती !
-शांती स्वरुप मिश्र ईमेल : mishrass1952@gmail.com
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