भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
जो पाया नहीं है | ग़ज़ल (काव्य)  Click to print this content  
Author:ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

जो पाया नहीं है उसकी भरपाई करनी है,
अपनी सारी हसरतों की तुरपाई करनी है।

बहुत जी लिया ख़ामोशी से ज़िन्दगी मगर,
अब दिल के ज़ख़्मों की सुनवाई करनी है।

मेरे मुक़द्दर मुझ पर मेहरबान ज़रूर रहना,
मुझे भी पश्चिमी हवा को पुरवाई करनी है।

सर्द रातों में ना कांपे मेरा चांद आसमां में,
उसे भी छत ढूंढ के कुछ गरमाई करनी है।

बैठा है मुद्दतों से जो लड्डू के इन्तिज़ार में,
शेष ज़िन्दगी उसके लिए हलवाई करनी है।

ख़्वाबों के नये महल बनाने की जुस्तजू में,
अपने पुराने मकानों की तुड़वाई करनी है।

मुझे मिले तो सही कोई उसको रोज़गार दूं,
सेहत में जमा मलवों की ढुलवाई करनी है।

वो ऐसे ही नहीं रहता है दिल के आसपास,
उसको बे-रंग ख़्यालों की रंगवाई करनी है।

दिल में यक़ीन और हौसलों के साथ आना,
ज़फ़र आंगन से कमरे में चारपाई करनी है।

ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
zzafar08@gmail.com

 

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