आज न जिसने कलम गड़ाई पशुवत् अत्याचारों में। उस कायर कवि की गिनती है, नवयुग के हत्यारों में।।
जिसके मन के भाव, घाव मानवता के भर नहीं सके। जिस भावुक के अश्रु आज परवशता में झर नहीं सके।। आज दनुजता के दंशन से, जिसे न कुछ पीड़ा पहुँची, उस पशु को हम गिनें भला क्या साहित्यिक कृतिकारों में!
आग लगी दुनिया में, जिसने की लपटों की अवहेला। उसे न सुख मिल कभी सकेगा, आज न जिसने दुख झेला।। विपति विषमता की बेड़ी में, पग सोये जो, टूट चुके-- जो पतझड़ में टिका न तरु, वह फूला नही बहारों में ।।
लेकर अपनी 'कला' कमल सा, जो कीचड़ में फूल बना। मानवता के महायज्ञ में जो जन जलती तूल बना, जीवित रहकर इस जगती के चुभते काँटे चुन डाले-- और धन्य है वही, मरा जो जनता की जयकारों में ।
आज वही कवि, जिसने पैदा कर दी बलि की बेचैनी आज वही रवि चीयर गई तम को जिसकी किरनें पैनी। कलाकार है वही जला जो जलती जगती के कारण-- 'रोम्यां रोलां' सा शहीद बन फ्रांसिस्ती फुफकारों में।
आज न जिसने कलम गड़ाई पशुवत अत्याचारों में। उस कायर कवि की गिनती है, नवयुग के हत्यारों में।।
-शिवसिंह सरोज [1942] |