सब इन्द्रियों ने श्रेष्ठता के लिए "मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा हूँ" कह- कर आपस में विवाद किया। उन इन्द्रियों ने पिता प्रजापति के पास जाकर पूछा "भगवन्, हममें कौन श्रेष्ठ है?" प्रजापति ने उत्तर दिया,"जिसके निकल जाने से शरीर सबसे अधिक दुर्दशा को पाता है, तुममें वही श्रेष्ठ है।"
वाणी निकल गई। यह एक वर्ष बाहर रहकर लौट आई और उसने पूछा, "मेरे बिना तुम लोग कैसे जी सके?" अवशिष्ट इन्द्रियों ने उत्तर दिया, "जैसे गूंगे न बोलते हुए, परन्तु प्राण से साँस लेते हुए, चक्षु से देखते हुए, कर्ण से सुनते हुए, मन से सोचते हुए रहते हैं, वैसे ही।"
वाणी पुनः शरीर के अन्दर प्रविष्ट हुई।
चक्षु निकल गई। वह एक वर्ष बाहर रहकर लौट आई और उसने पूछा, "मेरे बिना तुम लोग कैसे जी सके?" अवशिष्ट इन्द्रियों ने उत्तर दिया, "जैसे अन्धे न देखते हुए, परन्तु प्राण से साँस लेते हुए, वाणी (जिह्वा) से बोलते हुए, कर्ण से सुनते हुए, मन से सोचते हुए जीते हैं, वैसे ही।" चक्षु पुनः शरीर के अन्दर प्रविष्ट हुई।
कर्ण निकल गया। वह एक वर्ष बाहर रहकर लौट आया और उसने पूछा, "मेरे बिना तुम लोग कैसे जी सके?" अवशिष्ट इन्द्रियों ने उत्तर दिया, "जैसे बहिरे न सुनते हुए, परन्तु प्राण से साँस लेते हुए, वाणी से बोलते हुए, चक्षु से देखते हुए, मन से सोचते हुए जीते हैं, वैसे ही।" कर्ण पुनः शरीर के अन्दर प्रविष्ट हुआ।
मन निकल गया। वह एक वर्ष बाहर रहकर लौट आया और उसने पूछा, "मेरे बिना तुम लोग कैसे जी सके?" अवशिष्ट इन्द्रियों ने उत्तर दिया, "जैसे बच्चे बुद्धिहीन प्राण से साँस लेते हुए वाणी से बोलते हुए, चक्षु से देखते हुए, कर्ण से सुनते हुए जीते हैं वैसे ही।" मन पुनः शरीर के अन्दर प्रविष्ट हुआ।
अब प्राण जब निकलने लगा, उसने सब इन्द्रियों को साथ-साथ उखाड़ दिया--जैसे एक अच्छा घोड़ा पिछाड़ी के खूँटों को उखाड़ देता है। तब सब इन्द्रियों ने मिल कर प्राण के सामने आकर कहा, "भगवन्! आइए। आप ही हम सब में श्रेष्ठ हैं। आप निकल न जाइए।"
[छान्दोग्य उपनिषद् से]
|