एक मूर्ख था। एक दिन वह कहीं जा रहा था। वह बड़ा डरपोक और शक्की था। इसलिए अकेले चलते हुए डरता था। सोचता था, न जाने किस समय कोई उसे छिप कर मार दे, इसलिए वह इधर-उधर देखकर चलता था। अचानक न जाने क्या खयाल आया, उसने पीछे मुड़ कर देखा, कोई न था। उसकी छाया थी। वह कांप उठा, बोला, "वह मेरे साथ कौन चला आ रहा है?" बड़े साहस से वह छाया की ओर मुड़ा और उससे पूछने लगा, "तू कौन है?" छाया ने कुछ न कहा। मूर्ख ने समझा मुझसे डर गया है। वह आगे बढ़ गया पर साथ ही यह भी शंका थी कि कहीं अभी भी पीछा न कर रहा हो। वह एक बार फिर मुड़ा। फिर वही छाया दिखाई दी। मूर्ख घबराया। अबकी बार उसने हाथ उठाकर उसे रुकने के लिए संकेत किया। तभी छाया का हाथ टोपी की ओर उठता हुआ दिखाई दिया। मूर्ख ने समझा, मेरी टोपी मांग रहा है। उसने अपनी टोपी उसकी ओर फेंक दी और चलने लगा।
आगे चलकर उसे फिर वही शंका हुई, उसने पीछे मुड़ कर देखा। छाया अभी भी पीछे-पीछे चली आ रही थी। मूर्ख चिढ़ उठा, "अब क्या चाहिए तुझे?" उसने पीटने के लिए हाथ बढ़ाया। छाया ने भी हलचल की! छाया में उसके कुरते की ओर संकेत दिखाई दिया। मूर्ख ने कुरता उतार कर उसकी ओर फेंककर कहा, "ले, अब तो खुश है!"
मूर्ख फिर आगे बढ़ा। उसे संतोष था कि बला टली पर मोड़ पर आते ही उसे फिर छाया दिखाई दी। अबकी बार उसे बड़ा गुस्सा आया। अब उसके शरीर पर घोती के सिवा कुछ न था। बेचारा क्या करता! धोती दे नहीं सकता था, आगे बढ़ नहीं सकता था। आखिर सिर पर हाथ रख कर वह वहीं पर बैठ गया और जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगा।
तभी उस रास्ते से एक चतुर आदमी निकला। उसने उसे रोते सुना, वह रुक गया। रोने का कारण पूछा। मूर्ख ने छाया की ओर संकेत किया और कहा, "यह मेरा पीछा कर रहा है। मैंने इसे अपनी टोपी दी, फिर कुरता दिया। यह न माना। अब यह मेरी धोती मांग रहा है।"
चतुर आदमी मुस्कराया और बोला, "चिन्ता न करो। शाम तक यहीं बैठे रहो। वह अपने-आप चला जाएगा।
मूर्ख ने उसकी बात मान ली। वह दिन भर बहीं बैठा रहा। शाम हुई। दिन डूबा। धूप भी ख़त्म हो गई। तब मूर्ख उठ खड़ा हुआ। अब उसके पीछे कोई छाया न थी। उसने चैन की सांस ली। जान बची। उसने उस चतुर आदमी को मन ही मन धन्यवाद दिया और अपनी राह ली।
[गढ़वाल की लोक-कथा] |