किसी पहाड़ी पर रास्ते के बीच में ही एक गड्ढा था। पहाड़ी पर चारों तरफ हरियाली और झाड़-झंखाड थे। वहाँ चरने वाली बकरियों को भला वह गड्ढा कहाँ से दिखाई पड़ता!
चरते-चरते सबसे पहले नंबर की बकरी धोखे से उस गड्ढे में गिर पड़ी तो दूसरे नंबर की बकरी को लगा कि जरूर उस गड्ढे में कोई खास चीज होगी। आगे-पीछे का कोई भी विचार किए बिना वह भी उस गड्ढे में जा गिरी। एक-दो-तीन-चार-पांच सिलसिला जारी रहा।
धीरे-धीरे वह गड्ढा भरने लगा, लेकिन सबसे आखिरी बकरी ने अपनी अन्य सहेलियों का अनुकरण किए बिना, बल्कि उनके सिर पर बड़े ही शान से कदम रखकर आगे निकल जाने का साहस दिखलाया।
और आगे निकल जाने के बाद पीछे मुड़कर कहा, 'बुद्ध कहीं की! रास्ते में पड़े गड्ढे भी दिखाई नहीं देते?'
तब से इस देश में गड्ढे बनवाये जाने लगे और उन्हें इसी पद्धति से पटवाकर आगे निकल जाने का सिलसिला शुरू हो गया, जो अब तक जारी है।
-वि० स० खांडेकर [संपादक – बलराम, अनुवाद : भातंब्रेकर, भारतीय लघुकथा कोश (भाग-1), दिनमान प्रकाशन, 1989]
*विष्णु सखाराम खांडेकर (11 जनवरी 1898 - 2 सितंबर 1976) मराठी के लेखक थे। वह प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार जीतने वाले पहले मराठी लेखक हैं।
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