मैं खो गया हूँ।
हुआ यह कि मैं अपने सामने गंगा को ठाठें मारते हुए देख रहा था। सहसा मुझे अनुभव होने लगा कि मैं अपने ही मन में गोते खाकर डूब रहा हूँ। पता नहीं, कब तक मैं अपने मन की तहों में बेसुध पड़ा रहा और जब आँख खोली तो अपने आपको अपने मन से बाहर, यहाँ किनारे पर पाया।
-जोगेंदर पाल [संपादक – बलराम, भारतीय लघुकथा कोश (भाग-2), दिनमान प्रकाशन, 1990]
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