राष्ट्र देवो भव
मैं अनुभव करता हूँ कि मैं भारत हूँ — संपूर्ण भारत मैं हूँ। भारतभूमि मेरा अपना शरीर है। कुमारी अंतरीप मेरे चरण हैं। हिमालय मेरा शिर है। मेरे बालों से गंगा प्रवाहित होती है। मेरे शिर से ब्रह्मपुत्र और सिंधुनद बहते हैं। विंध्याचल मेरा कटिबंध है। कारोमंडल मेरी दाई और मालाबार मेरी बाई टाँग है। मैं संपूर्ण भारत हूँ । इसकी पूर्व और पश्चिम मेरी बाँहें हैं, जिन्हें मानवता को आलिंगन करने के लिए मैंने फैला रखा है।
जब मैं चलता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ कि भारत चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ कि भारत बोल रहा है। जब मैं साँस लेता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ कि भारत साँस ले रहा है। मैं भारत हूँ, मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ ।" राष्ट्रीयता का यह सबसे ऊँचा स्वरूप है।
जिस प्रकार अद्भुत स्त्रोत, सुंदर नदियाँ और मानसून पवनें हिमालय की ऊँचाइयों से प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार वास्तविक आध्यात्मिकता भारत से प्रवाहित हुई है।
कोई व्यक्ति तब तक सर्वरूप परमेश्वर से अपनी अभिन्नता का अनुभव नहीं कर सकता, जब तक कि संपूर्ण राष्ट्र के साथ अभिन्नता उसकी देह के रोम-रोम में तरंगित न होने लगे।
राष्ट्रहित के संवर्धन का प्रयत्न करना ही देवताओं की उपासना करना है।
कुछ लोगों के लिए भारत के कष्टों को दूर करने की समस्या भले ही राष्ट्रीय समस्या हो, राम के लिए यह अंतरराष्ट्रीय है। कुछ लोगों के लिए चाहे यह राष्ट्रभक्ति का प्रश्न हो, राम के लिए यह मानवता का प्रश्न है।
ऐसा अनुभव करके समस्त भारत प्रत्येक भारतवासी में मूर्तिमान है, भारत के हर एक सुपुत्र को संपूर्ण भारत की सेवा में तत्पर रहना चाहिए।
व्यक्ति को अपने या अपने स्थान के धर्म को किसी तरह भी राष्ट्रीय धर्म से ऊँचा स्थान नहीं देना चाहिए। इनके उचित समन्वय द्वारा ही सुख प्राप्त हो सकता है।
वह आदमी, जो सारे राष्ट्र अथवा जाति से अपना अभेद स्थापित कर लेता है, उसे आप देशभक्त कह सकते हैं। उसका घेरा बहुत विशाल है। वह जिनकी सेवा कर रहा हैं, वे किस मतवाले हैं, इसकी वह चिंता नहीं करता । जाति-पाँति, वर्ग, नाम आदि का खयाल छोड़कर वह संपूर्ण देश के सभी निवासियों का पक्ष समर्थन करता है। वह मनुष्य धन्य है, अभिनंदन करने योग्य है।
--स्वामी रामतीर्थ Swami Ram Tirth |