हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
 

मैं दिल्ली हूँ | पाँच

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

प्राणों से हाथ पड़ा धोना, मेरे कितने ही लालों को ।
बच्चों के प्राणों को हरते, देखा शैतानी भालों को ।।

लूटा मुझको; नोचा मुझको, जितना भी जिसके हाथ लगा।
रंगीन बहारें बीत गई, किस्मत सोई पतझार जगा ।।

मेरे माथे के भूमर को, गौरी ने आकर तोड़ दिया ।
मुझको घायल हिरनी जैसा, केवल रोने को छोड़ दिया ।।

लेकिन जाने इस धरती ने मुझको, कैसा वरदान दिया ।
जिस पतझर ने लूटा मुझको, उसने ही फिर श्रृंगार किया ।।

गौरी ने मुझको कुतबुद्दीन, ऐबक के हाथों सौंप दिया ।
उसने फिर मेरे घर लाकर, खुशियों का पौधा रोप दिया।।

फिर से रौनक; फिर से खुशियाँ, मेरे अाँगन में झूम गयीं।
मेरी सज-धज की चर्चाए, सारी दुनिया में घूम गयीं।।

यह लाटकुतुब की रोज मुझे, उसकी ही याद दिलाती है।
यह चुपके-चुपके मुझको, मेरी गाथा रोज सुनाती है।।

मानव की अमर कला की यह, अद्भुत सी एक निशानी है।
मेरा लम्बा इतिहास इसे, आगे का याद जुबानी है।।

अलतमश अभी तक याद मुझे, बलवन का राज नहीं भूला ।
अब तक काँटों में लिपटा वह, रजिया का ताज नहीं भूला ।।

वह मेरी प्यारी बेटी थी, मेरे सिंहासन की रानी ।
उसकी वह अद्भुत सुन्दरता उसका वह साहस लासानी ।।

मेरी गद्दी पर बैठी जो, वह शायद पहली नारी थी।
उसकी निर्भयता के आगे, पुरुषों की हिम्मत हारी थी ।।

नारी के सोए साहस को, उसने आवाज लगाई थी ।
पुरुषों की ताक़त से उसने, डटकर तलवार चलाई थी ।।

उसको मैं भूल नहीं सकती, रजिया थी एक भवानी थी ।
उस दिन पहले-पहले मैंने, असली नारी पहचानी थी ।।

लेकिन जुल्मों का क्या कहना, जुल्मों ने उसको मार दिया ।
नारी के जीवन में फिर से, किस्मत ने भर अँधियार दिया ।।

वह वंश गुलामों का डूबा, वह राज गया; वह ताज गया ।
आया खिलजी राजाओं का, फिर मेरे घर में राज नया ।।

वह शाह अलाउद्दीन जिसे, सबने जालिम ठहराया था ।
मुझको उसने भी रूप दिया, मेरा घरबार सजाया था ।।

- रामावतार त्यागी [ क्रमश:]

 

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