जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

कवि फ़रोश | पैरोडी

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi

जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के कवि बेचता हूँ
मैं किसिम-किसिम के कवि बेचता हूँ।

जी, वेट देखिए, रेट बताऊं मैं
पैदा होने की डेट बताऊं मैं
जी, नाम बुरा, उपनाम बताऊं मैं
जी, चाहे तो बदनाम बताऊं मैं
जी, इसको पाया मैंने दिल्ली में
जी, उसको पकड़ा त्रिचनापल्ली में
जी, कलकत्ते में इसको घेरा है
जी, वह बंबइया अभी बछेरा है
जी, इसे फंसाया मैंने पूने में
जी, तन्हाई में, उसको सूने में
ये बिना कहे कविता सुनवाता है
जी, उसे सुनो, तो चाय पिलाता है
जो, लोग रह गए धँधे में कच्चे
जी, उन लोगों ने बेच दिए बच्चे
जी, हुए बिचारे कुछ ऐसे भयभीत
जी, बेच दिए घबरा के अपने गीत।

मैं सोच समझ कर कवि बेचता हूँ
जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।

ये लाल किले का हीरो कहलाता
ये दाढ़ी दिखला कर के बहलाता
जी, हास्य व्यंग्य की वो गौरव गरिमा
जी गाया करता जीजा की महिमा
जी, वह कुतक का रंग जमाता है
जी, बिना अर्थ के अर्थ कमाता है
वो गला फाड़ कर काम चला लेता
ये पैर पटक कर धाक जमा लेता
जी, ये त्यागी है, वैरागी है वो
जी, ये विद्रोही है, अनुरागी है वो
ये कवि युद्ध की गाता है लोरी
वो लोक धुनों की करता है चोरी
ये सेनापति कवियों की सेना का
वो क़िस्सा गाता तोता-मैना का
ये अभी-अभी आया है लाइट में
वो कसर नहीं रखता है डाइट में
ये लिख लेता है कविता हथिनी पर
वो लिख लेता है अपनी पत्नी पर
जी, इसने बिल्ली, गधे नहीं छोड़े
जी, उसने कुत्ते बंधे नहीं छोड़े

जी, सस्ते दामों इन्हें बेचता हूँ
जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।

जी, भीतर से स्पेशल बुलवाऊँ
आप कहे उनको भी दिखलाऊँ
ये अभी-अभी लौटा है लंदन से
वो अभी-अभी उतरा है चंदन से
इसने कविता पर पुरस्कार जीता
है शासन तक लंबा इसका फ़ीता
जी, ग़म खाता वो आँसू पीता है
जी, ये फोकट की रम ही पीता है
इसके पुरखों ने पी इतनी हाला
बिन पिए रची है इसने मधुशाला
जी, ये मन में कस्तूरी बोता है
जी, वो कवियों के बिस्तर ढ़ोता है
ये देश-प्रेम में बहता रहता है
वो रात-रात भर दहता रहता है
ये मन्दिर जैसे गाँव किनारे का
वो तैरा करता सागर पारे का
जी, ये सूरज को कै करवाता है
अनब्याही वो किरण बताता है
इसकी कमीज़ पर धूप बटन टाँके
जी, उसका गधा बैलो को हाँके
जी, क्यों हुज़ूर कुछ
आप नहीं बोले
जी, क्यूँ हुज़ूर, हैं आप बड़े भोले
जी, इसमें क्या है नाराज़ी की बात
मेरी दुकान में कवियों की बारात
जी, नहीं जंचे ये, कहें नये दे दूँ
जी, नहीं चाहिए नये, गए दे दूँ।

जी सभी तरह के कवि बेचता हूँ
जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।

जी, ये रूहें हिन्दी के बेटों की
जी, बेचारे क़िस्मत के हेठों की
जी, इनसे जीवन छन्दो में बांधा
जी हाँ, गीतो को होठों पर साधा
जी वो कविता को सौप गया त्यौहार
जी, बेच दिया इसने अपना घर-बार
जी, वो मनु को श्रद्धा से मिला गया
जी, ये मित्रों को अद्धा पिला गया
जी, वो पीकर जो सोया, उठा नहीं
जी, इसे पेट भर दाना जुटा नहीं
जी, समझ गया! हाँ, कवयित्रियाँ भी हैं
जी, कुछ युवती, कुछ अब तक बच्ची हैं
ये बन मीरा मोहन को ढूंढ रही
वो सूर्पणखा लक्ष्मण को मूंड रही
ये बाँट रही जग को कोरे सपने
वो बेच रही जग को अनुभव अपने
जी, कुछ कवियों से इनका झगड़ा है
जी, उनका पौव्वा ज्यादा तगड़ा है
जी, ये चलती है पति को साथ लिये
जी, वो चलती है पूरी बारात लिये
जी, नहीं-नहीं हँसने की क्या है बात
जी, मेरा तो है काम यही दिन-रात
जी, रोज नये कवि है बनते जाते
जी, ग्राहक मरजी से चुनते जाते
जी, बहुत इकट्ठे हुए हटाता हूँ
जी अंतिम कवि देखें दिखलाता हूँ
जी ये कवि है सारे कवियों का बाप
जी, कवि बेचना वैसे बिल्कुल पाप।

क्या करूँ, हार कर कवि बेचता हूँ
जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।

- शैल चतुर्वेदी
साभार - बाजार का ये हाल है
प्रकाशक: श्री हिन्दी संसार

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