तलवार के बल से न कोई भाषा चलाई जा सकती है न मिटाई। - शिवपूजन सहाय।
 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 आराधना झा श्रीवास्तव

मेज़ पर जमी हुई धूल को तर्जनी ऊँगली से हटाते हुए और उसे शेष उंगलियों से रगड़कर झाड़ते हुए शर्मा जी झुंझलाए और फिर ऊँचे स्वर में कामिनी को पुकारते हुए कहा, “कामिनी..कामिनी...कहाँ हो...देखो तो मेज़ पर धूल की कितनी मोटी परत है। आज इस कमरे की सफ़ाई करना भूल गई क्या?  काम ठीक से करे न करे, मगर महारानी को पगार तो समय पर ही चाहिए।”

रसोई में बर्तन माँज रही कामिनी नल को बंद कर सफ़ाई का कपड़ा लिए लगभग हाँफते हुए आयी और जल्दी जल्दी मेज़ को साफ़ करने लगी।

“यही काम पहले कर दिया होता तो मुझे चिल्लाना नहीं पड़ता। आँखें हैं या बटन? नज़र नहीं आता...कामचोर कहीं की..”

“मालिक मैंने सुबह मेज़ की अच्छी तरह से सफ़ाई की थी लेकिन इस मौसम में धूल बहुत उड़ती है इसी...” आगे के शब्द उसके गले में ही अटक कर रह गए।

कामिनी की कमज़ोर आवाज़ शर्मा जी की रोष में भरी रौबदार आवाज़ के नीचे दबकर रह गई, “तुम्हारी बकवास सुनने का मेरा पास समय नहीं है... अब जल्दी निकलो यहाँ से मेरा कार्यक्रम बस शुरु ही होने वाला है।”

कामिनी ने सफ़ाई का कपड़ा उठाया और दरवाज़े की ओर अभी मुड़ी ही थी कि पीछे से शर्मा जी ने कड़क आवाज़ में टोका, “कहाँ चल दी...जाने के पहले कुर्सी तो साफ़ करती जाओ...अब क्या एक-एक सामान को साफ़ करने के लिए अलग से न्यौता देना पड़ेगा ?”

जी साहब...कहकर कामिनी बिजली की गति से सफ़ाई करने लगी।

“हो गया ...बस... अब क्या देर कराओगी...निकलो यहाँ से...और हाँ जाने के पहले दरवाज़ा लगाती जाना...बाहर की कोई आवाज़ कमरे में नहीं आनी चाहिए।”

इससे पहले की कामिनी हॉल में कदम रखती पीछे से धड़ाम की आवाज़ आयी। पीछे पलट कर देखा तो साहब ग़ुस्से में खड़े होकर चिल्ला रहे थे... “कानों में रुई डाल दी है क्या? सुन नहीं रही कब से गला फाड़कर चिल्ला रहा हूँ...एक गिलास पानी लाकर मेज़ पर रखती जाओ।”

“जी वो दरवाज़ा बंद था तो सुन नहीं पायी। अभी लाई।”

कामिनी जल्दी से एक गिलास पानी लेकर मेज़ पर रखने को आई ही थी कि साहब का ग़ुस्सा फिर से फूट पड़ा, “अरी ओ अक्ल से पैदल...तुम्हें पूरे रसोईघर में यही गिलास मिला था। कांच के गिलास क्या अलमारी की शोभा बढ़ाने के लिए ख़रीदे है मैंने ? मालकिन कहाँ है ? वाणी दीदी कहाँ है? ऐन मौके पर कोई रहता ही नहीं है। अब खड़ी होकर मेरा मुँह क्यों ताक रही हो। जल्दी से जाकर एक बढ़िया से कांच के गिलास में पानी लेकर आओ।”

जी कहकर कामिनी वहाँ से जाने को मुड़ी ही थी कि फिर से शर्मा जी लगभग चीखते हुए बोले, ये स्टील वाला गिलास तो लेती जाओ। कैसे-कैसे बेवकूफ़ पाल रखे हैं...

अब तक शर्मा जी के वाचिक प्रहारों को झेल रहे कामिनी के कोमल हृदय ने जवाब दे दिया। होंठ थरथराए और स्टील के गिलास का पानी एक नमकीन बूँद से तरंगित हो उठा। अपनी साड़ी की कोर से आँखों के कोर से फूटने को आतुर गंगा-जमुना की धार पर संयम की बाँध लगाने का उपक्रम करती कामिनी के क़दम तेज़ी से दरवाज़े की ओर मुड़े।

दरवाज़े पर हाथ में पूजा की थाली लिए हड़बड़ी में आती हुई श्रीमती शर्मा दिखीं। जैसे दो अलग-अलग गंतव्य स्थलों की ओर तेज़ी से जाती हुई रेलगाड़ियाँ एक मोड़ पर आमने-सामने आ जाती हैं और फिर पलक झपकते ही बिना एक दूसरे का हाल-समाचार पूछे अपनी मंज़िल की ओर मुड़ जाती हैं, ठीक इसी तरह कामिनी और श्रीमती सावित्री शर्मा जी भी अपने-अपने गंतव्य स्थल की ओर मुड़ गए। कामिनी की गीली पलकें देखकर श्रीमती शर्मा जी को अंदाज़ा हो चुका था कि आज एक बार फिर से उनके ओजस्वी पतिदेव श्रीमान सूर्यदेव शर्मा का दिमाग़ गर्म है। शर्मा जी के गर्म मिजाज़ की ताप को बरसों से सहती आ रही श्रीमती शर्मा जी ने संयत स्वर में पूछा, "जी क्या हुआ? कामिनी को किस बात के लिए सुना रहे थे ?"

जैसे गर्म तवे का ताप ठंडे पानी के छींटों को भी उछाल देता है उसी तरह धर्मपत्नी का स्नेहिल स्वर सुनकर शर्मा जी की क्रोधाग्नि और भी तेज़ हो उठी।

“मिल गयी फ़ुर्सत तुम्हें? क्या हुआ.. तुम बस अपनी ही दुनिया में मगन रहो। भगवान से फ़ुर्सत मिलेगी तब तो श्रीमान की याद आएगी न। कल तुम्हें बताया था न कि आज एक महत्वपूर्ण वैचारिक गोष्ठी की अध्यक्षता का आमंत्रण है। न तो ढंग से मेज़ की सफ़ाई हुई है और न ही कमरे में ढंग की लाइटिंग...कामिनी को पानी लाने के लिए कहा था तो एक भद्दे से स्टील के गिलास में पानी लेकर आ गई। अब कार्यक्रम का लिंक ही नहीं मिल रहा है। वाणी से कितनी बार कहा है कि मेरे कार्यक्रम के पहले लिंक ढूंढकर सारी सेटिंग ठीक कर दिया करे लेकिन उसे तो अपनी सारेगामापा से ही समय नहीं मिलता। आजकल के बच्चों को माता-पिता की कोई परवाह ही नहीं। सब एक से बढ़कर एक कामचोर और नालायक़ भरे हुए हैं घर में। तुम तो देवी बनी फिरती हो लेकिन अपने देवता की ज़रा सी भी परवाह नहीं।”

“ऐसा मत कहिए जी। कल मैंने आपको बताया था न कि आज एकादशी का व्रत है इसीलिए पाठ...”,  श्रीमती जी अपनी बात पूरी कर पाती इससे पहले ही उनके श्रीमान ने टोकते हुए कहा, “अच्छा...अच्छा समझ गया पंडिताइन... अब अपनी रामकथा मत सुनाने लगो मुझे। जल्दी से ये पूजा का तिलक लगा दो कार्यक्रम में दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।”

श्रीमान सूर्यदेव के दैदीप्यमान ललाट पर श्रीमती जी ने कुमकुम की लालिमा से भरी ओजस्वी रेखा खींच दी। आरती की लौ देते समय उनके हाथों से श्रीमान के करीने से संवरे हुए केश बिखर गए और शांत होते श्रीमान एक बार फिर बिफर गए।

“क्या कर रही हो...कितना समय लगाकर केश संवारे थे, अब और काम बढ़ा दिया।”

“माफ़ कीजिए...मैं अभी ठीक कर देती हूँ।”

“रहने दो ठीक करने की जगह और बिगाड़ दोगी।”

“जाकर देखो कामिनी अब तक गिलास लेकर क्यों नहीं आई?”

“जी, मैं अभी लेकर आती हूँ।” कहकर श्रीमती जी मुड़ी तो दरवाज़े पर कामिनी हाथ में गिलास लिए हुए खड़ी नज़र आई। श्रीमती जी ने उसके हाथ से गिलास लेते हुए उसे पूजा की थाल पकड़ाकर पूजा घर में रखने का संकेत किया। आँचल से गिलास की पेंदी को पोंछकर मेज़ के एक किनारे रखा और फिर कमरे की लाइटिंग ठीक करने लगी।

“ठीक है ठीक है...अब तुम जाकर वाणी को यहाँ भेज दो। लिंक नहीं मिल रहा है, वह ढूँढ देगी।”

“वाणी की संगीत कक्षा चल रही है। बीच में कैसे टोकूँ ?”

“बीच में कैसे टोकूँ ? कौन सी मेडिकल की पढ़ाई है जिसमें इतना ध्यान लगाने की ज़रुरत है। उससे कहो कि क्लास छोड़कर एक मिनट के लिए यहाँ आए। उसकी सारेगामा मेरे कार्यक्रम से अधिक महत्वपूर्ण नहीं।”

उसकी सारेगामा...मेरी पूजा... आपके कार्यक्रम से अधिक महत्वपूर्ण कैसे हो सकती है। आप ठहरें साक्षात् सूर्यदेव और हम सब सौरमंडल के औने-पौने ग्रह जो अपनी-अपनी धुरी पर घूमते हुए आप ही के द्वारा निर्धारित पथ पर आपके इर्द-गिर्द चक्कर काटते रहते हैं। किसमें इतना साहस जो अपने लिए अपनी पसंद की राह चुने क्योंकि यदि किसी ने अपने लिए अलग पथ का चुनाव किया तो उसे आपके सौरमंडल से बहिष्कृत होने का दण्ड भोगना पड़ेगा। सावित्री के मन में भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था। जैसे खौलते पानी में कच्चे चावल को डालकर उसी क्षुधा को क्षणिक शांति मिलती है और फिर ढक्कन से ढँककर उसे अपने आवेग की सार्थकता का एहसास कराया जाता है, उसी तरह सूर्य के ताप से अपने नन्हें ग्रह को बचाने के लिए सावित्री ने अपने खौलते मन में ममता का भाव डालकर उस पर संयम का ढक्कन डाल दिया। समय रेत की तरह हाथ से फिसलता जा रहा था। सावित्री तेज़ क़दमों से चलकर वाणी के कमरे तक पहुँची तो देखा दरवाज़ा बंद था। भीतर से आती संगीतमय स्वर-लहरियों ने मन मोह लिया। उसे आभास हो गया कि अभ्यास सत्र शीर्ष पर है लेकिन पत्नीधर्म मातृत्व पर हावी हो गया और न चाहते हुए भी उसने द्वार पर दस्तक दिया। भीतर से वाणी ने मधुर स्वर में पूछा, “कौन है? अभी क्लास चल रही है...बाद में आना।”

“मैं हूँ वाणी। बाहर निकलो। पिताजी तुम्हें कब से ढूँढ रहे हैं। उन्हें तुमसे एक ज़रुरी काम है।”

“माँ पाँच मिनट दे दो”।

“वाणी जल्दी करो पिताजी बहुत ग़ुस्से में हैं। पाँच मिनट में उनका कार्यक्रम शुरु होने वाला है।”

वाणी ने पैर पटकते हुए दरवाज़ा खोला और बरस पड़ी, “क्या है...हर दूसरे दिन उनका कोई न कोई कार्यक्रम होता रहता है। ऑनलाइन मीटिंग कौन सा रॉकेट साइंस है। छोटा सा बच्चा भी जानता है कि मीटिंग कैसे ज्वाइन करनी है लेकिन पिताजी को तो हर काम के लिए एक सेवक चाहिए जिसे वह आदेश देते रहें और वह दिन-रात उनकी चाकरी करता रहे। तुम ही बताओ माँ ऐसे बीच से उठकर जाऊँगी तो गुरुजी क्या सोचेंगे...”, वाणी एक साँस में बोलती जा रही थी।

“अभी गुरुजी की नहीं पिताजी की सोचो और चलो लिंक ढूँढकर मीटिंग सेट कर दो फिर चली जाना। कौन सा तुम्हें वहाँ बैठकर सुनने को कह...”, कहते-कहते सावित्री चुप हो गई क्योंकि उसे पता है कि अगला आदेश वही मिलने वाला है। अब जब मिलेगा तब देखेंगे फिलहाल तो वाणी को किसी तरह मनाकर ले जाना उसकी प्राथमिकता है।

“वाणी बातों में समय नष्ट करने से क्या लाभ..जल्दी चलो। गुरुजी को बाद में आकर बता देना।”

“एक मिनट रुको माँ। मैं चैटबॉक्स में गुरुजी को संदेश भेज देती हूँ।”

“जल्दी करो वाणी। पिताजी उबल रहे होंगे।”

“कब नहीं उबलते हैं ये कहो माँ। उबलना तो उनके स्वभाव में ही है।”

“वाणी...चुप रहो..”, सावित्री ने खीजकर कहा।

“अपनी वाणी पर विराम दो...ऐसा कहो माँ...”, कहते-कहते वाणी हँस पड़ी।

सावित्री के चेहरे पर भी फीकी सी हँसी तैरने लगी। हँसी तैरकर अभी इस पार से उस पार भी नहीं पहुँची थी कि उनके कानों में श्रीमान सूर्यदेव का आग उगलता स्वर पहुँचा।

“पैरों में मेंहदी लगा रखी है क्या तुम दोनों ने...कब से चिल्ला रहा हूँ सुनाई नहीं दे रहा है क्या? जल्दी करो कार्यक्रम शुरु होने वाला है। वाणी तुमसे कल रात को ही कहा था न कि आज की मीटिंग सेट कर देना फिर क्यों नहीं किया। हर बार आवाज़ देकर बुलाना पड़ता है। इतनी सी बात याद नहीं रख पाई।”

“पिताजी...मैंने भी तो आपसे कहा था न कि आज से मेरी संगीत की कक्षा का समय बदल दिया गया है लेकिन आप तो मेरी बात सुनते ही नहीं।”

“अपनी ग़लती मानने की जगह मुझसे बहसबाज़ी कर रही हो।”

सावित्री बेचारी सरहद पर खड़े निहत्थे सैनिक की तरह दोनों ओर से फेंके जा रहे वाक्-अस्त्रों के प्रहार को झेल रही थी। घर की शांति के लिए उसे बीच में बोलना ही पड़ा।

वाणी बातों में समय व्यर्थ गंवाए बिना पिताजी की मीटिंग सेट कर दो। कार्यक्रम शुरु होने ही वाला है।

“लिंक कहाँ है...?” वाणी ने पूछा।

पिताजी आक्रामक मुद्रा से बचाव की मुद्रा में आते हुए बोले, लिंक ही तो नहीं मिल रहा है।

अब आक्रामक होने की बारी वाणी की थी, “कमाल है! कार्यक्रम आपका और आपको लिंक ही नहीं मिल रहा है।” 

इस बार पिताजी थोड़े नरम पड़ते हुए बोले, “नहीं मिल रहा है तभी तो तुम्हें ढूँढ रहा था न...ये सब नई तकनीक कितना भी सीखने की कोशिश करता हूँ पल्ले ही नहीं पड़ता है। ज़रा देखो न कहाँ चला गया। पिछले दस मिनट से उलझा हुआ हूँ।”

पिताजी को नरम पड़ता देख वाणी के तेवर भी ढीले पड़े और उसने पिताजी को हटने का संकेत देकर कंप्यूटर को अपने सामने रखकर संदेश वाला एप खोला।

“किस समूह में भेजा गया था?”

“साहित्य और समाज...”

“अच्छा रुकिए मैं अभी सब सेट कर देती हूँ। आप तब तक अपने बाल ठीक कर लीजिए। माँ आप खिड़की के पर्दे को बायीं ओर खींच दीजिए ताकि पिताजी के चेहरे पर रोशनी आए।”

“लीजिए...मीटिंग में आपको ज्वाइन करवा दिया है। आप तैयार हो तों वीडियो ऑन कर दीजिएगा लेकिन जब तक आपकी बारी न आए अपना माइक म्यूट रखिएगा वरना यहाँ जो प्रेम की धारा फूट रही थी उसका आनंद दुनिया को भी मिलने लगेगा,” कहकर वाणी हँस पड़ी।

सूर्यदेव के मुखमंडल पर राहत के बादल तैरने लगे। ताप कम हुआ तो हँसी ने साहस बटोरकर उनके चेहरे पर दस्तक दी।

“अच्छा पिताजी अब मैं जाती हूँ। गुरुजी से दो मिनट कहकर आई थी।”

वाणी के साथ साथ सावित्री भी जाने को मुड़ी ही थी कि पिताजी ने एक बार फिर पीछे से टोकते हुए कहा, “इस कार्यक्रम का लाइव प्रसारण हो रहा है। तुम दोनों जाकर वहाँ कुछ बढ़िया-बढ़िया टिप्पणी देते रहो । उन लोगों को भी तो मेरी लोकप्रियता के बारे में पता होना चाहिए।”

“वाणी तुम अपने सहेलियों के साथ भी इसका लाइव लिंक साझा कर सकती हो। तुम जल्दी से क्लास निपटाकर फ़ेसबुक पेज से जुड़ जाना।”

“सावित्री तुम भी अपने परिवार वालों को और सहेलियों को ये लिंक भेज दो। खाली नीला अंगूठा मत दबाती रहना। कुछ बढ़िया कॉमेंट लिखना जिससे उन्हें पता रहे कि मेरे परिवार वाले मुझसे कितना स्नेह करते हैं।”

“जाओ...जाओ...जल्दी जाओ...मुझे वीडियो ऑन करना है और हाँ जाने के पहले दरवाज़ा लगाती जाना।”

कत्थई रंग के उस भारी दरवाज़े के किनारे पर लगी सुनहरे रंग की नक्काशीदार मूठ को खींचकर उसे बंद करते समय सावित्री ने सोचा कि खोलने और बंद होने की इस प्रक्रिया से गुज़रते हुए ये बेचारा दरवाज़ा भी तो थक गया होगा। दरवाज़े पर चढ़ी चमकदार परत में उसे अपना धुँधला-सा अक्स नज़र आया। उसे लगा मानो वह लकड़ी का दरवाज़ा नहीं बल्कि स्वयं उसका ही प्रतिरुप है जो श्रीमान के कक्ष के बाहर एक सजग प्रहरी और सेवाभावी सेवक बनकर कब से खड़ा है। कक्ष के बाहर और उसके भीतर के संसार की विभाजक रेखा बनकर, उस कक्ष की लज्जा का आवरण बनकर, चारदीवारी के भीतर हो रही बहसों का मूक गवाह बनकर, चौखट की परिधि में सिमटा हुआ, पल्ले की आड़ में अपने अंतर्मुखी मन में कितना कुछ समेटे सबके आतिथ्य में करबद्ध खड़ा। कभी स्वयं के बाहर की ओर न खुल पाने की कसक में छटपटाकर दीवारों से सिर फोड़ता हुआ और कभी कक्ष के स्वामी के क्रोध के आवेग से पत्ते सा डोलता हुआ। कभी दीवारों से लिपटकर अपनी पीड़ा को साझा करता हुआ और कभी नन्हें डोर स्टॉपर का आश्रय पाकर राहत की साँस लेता हुआ। संभवत: पहली बार उसने दरवाज़े को इतने ध्यान से देखा है। आज न जाने क्यों उस दरवाज़े के प्रति सावित्री के भीतर इतनी संवेदना जाग रही थी। वह सोच रही थी कि दरवाज़े की भी तो अपनी एक अलग दुनिया और उसे देखने की दृष्टि होती है। वह अपने काष्ठ नेत्रों से कमरे के दोनों ओर के संसार का सजीव प्रसारण देखता हुआ किसी धीर-गंभीर गृहस्थिन सा अपने होंठों पर चुप्पी धर लेता है ठीक वैसे ही जैसी चुप्पी सावित्री ने ओढ़ रखी थी। चुप्पी कितनी ख़तरनाक होती है...किसी तूफ़ान के आने के पहले वाली ख़ामोशी की तरह। संत की चुप्पी मौन साधना की उपमा पाती है और जन साधारण की चुप्पी उसकी लाचारी का प्रतीक। कहने को तो बहुत कुछ होता है लेकिन सब कहने लगे तो कलह का कोलाहल, काल बनकर सबको निगल जाएगा।

सावित्री और वाणी दोनों चुप थे क्योंकि उनके पास कहने को बहुत कुछ था लेकिन उनके कहने-सुनने का कोई अर्थ न था। वाणी ने माँ को प्रश्नवाचक दृष्टि से निहारा। वाणी के नेत्र मूक होकर भी उसके पारदर्शी मन के भावों को अभिव्यक्त कर देते हैं। माँ वाणी के नेत्रों की भाषा पढ़ना जानती है इसीलिए उसे पता है कि वाणी उससे क्या कहने वाली है। देखा मैंने कहा था न..वाला भाव उसकी आँखों में तैर रहा था। सावित्री को भी तो पता था कि श्रीमान जी का अगला आदेश क्या मिलने वाला है और संभवत इसीलिए कमरे में आने से पहले वाणी को ये कहते हुए कि कौन सा तुम्हें वहाँ बैठकर सुनने को कह रहे हैं वाला वाक्य वह पूरा नहीं कर पाई थी। 

साल भर से जितने भी ऑनलाइन कार्यक्रम हुए हैं उनसे श्रीमान सूर्यदेव का प्रताप बढ़ता चला गया और सावित्री और वाणी के धैर्य का बाँध थोड़ा-थोड़ा दरकता चला गया। ऑनलाइन कार्यक्रम के कारण पूरे घर में आपातकाल सा मौहाल बन जाता है। कमरे के हर कोने को करीने से सजाना। हर दो महीने पर उसकी सजावट में बदलाव। नए पर्दे, रोशनी के लिए अतिरिक्त व्यवस्था। श्रीमान के ओजस्वी व्यक्तित्व से मेल खाते परिधानों का चयन और उनकी देखभाल। मीटिंग सेट करना और फिर अपनी तशरीफ़ को तक़लीफ़ देते हुए दो घंटे बैठकर लाइव लिंक पर जाकर उन्हें सुनना और साथ में लाइक और कॉमेंट करते रहना। दोनों माँ-बेटी ने कोरोना को कितना कोसा किंतु कंटीली और मोटी चमड़ी वाले इस कोरोना पर उनकी किसी भी बात का कोई असर नहीं हुआ। कोरोना की लहर वेब सीरिज की श्रृंखला की भाँति किस्तों में आती रही और ऑनलाइन कार्यक्रमों की बहार सोशल मीडिया पर छाई रही।

घर के कामधाम के साथ-साथ ये एक अतिरिक्त ड्यूटी सावित्री के हिस्से आ गई। सोशल मीडिया पर श्रीमान का गुणगान जिसमें सत्य की सतह पर झूठ की मोटी परत चढ़ाते चढ़ाते सावित्री की ऊंगलियाँ और आत्मा दोनों ही थकती जा रही है। वाणी ने तो विद्रोह का बिगुल बजाकर अपने सारे सोशल मीडिया अकाउंट बंद कर दिए जिसकी सूचना उनके प्रतापी पिताजी को अभी नहीं मिली है लेकिन सावित्री न चाहते हुए भी अपने श्रीमान का साथ निभाए जा रही है। अपने नाम को चरितार्थ करती सावित्री असली और आभासी दोनों ही संसार में अपना पत्नीधर्म निभाती जा रही है।

वाणी के पैरों में मानो पंख लग गए हों। उसे तो उड़कर अपने कमरे में जाने की जल्दी हो रही थी। गुरुजी उसकी प्रतीक्षा में थे।

माँ मैं जा रही हूँ आप देख लेना... कहकर वह तेज़ी से कमरे की ओर लपकी और दरवाज़ा बंद कर लिया।

सावित्री दरवाज़े के बाहर खड़ी होकर सोचती रही। मैं देख ही तो रही हूँ। सबके रंग-ढंग, सबकी अपेक्षाएँ, सबका व्यवहार मगर मुझे कौन देख रहा है। मैं दिख भी रही हूँ किसी को या सबने मुझे अदृश्य मान लिया है। श्रीमान को कार्यक्रम में जाना है तुम्हें क्लास में और मुझे...मुझे कहाँ जाना है? क्या करना है? किसी ने पूछने की ज़रुरत ही नहीं समझी। सरकारी फ़रमान की तरह सबके आदेश मुझ तक पहुँचते हैं लेकिन मेरी फ़रियाद किसी तक नहीं पहुँच पाती। ये संवाद दोतरफ़ा क्यों नहीं है?

क्यों मैं श्रीमान से नहीं कह पाती कि मुझे आपके झूठ को सुनने में कोई रुचि नहीं। आपको दुनिया के सामने अपनी लोकप्रियता का डंका पिटवाना है। दुनिया को दिखाना है कि देखो देखो किस तरह मेरे प्रशंसक मेरे मुखारविंद से निकले वचनों का प्रसाद पाने को आतुर हैं। मेरी ओजस्वी वाणी को सुनने के लिए किस तरह उनके कान तरसते रहते हैं लेकिन चाशनी में लिपटी हुई आपकी झूठी बातों को सुनना मेरे कानों के लिए पिघले सीसे सा कष्टदायक है। आपको कई बार कार्यक्रमों के प्रति अपनी अरुचि के संकेत भी दिए लेकिन आपने तो कानों के द्वार पर एक छन्नी लगा रखी है जिसमें से प्रशंसा के मीठे स्वर तो भीतर प्रवेश करते हैं लेकिन आलोचनाओं के तीखे स्वर तो द्वार पर खड़े होकर चीखते चिल्लाते रह जाते हैं। उन्हें तो अंत:प्रदेश में प्रवेश की अनुमति ही नहीं मिल पाती। विरोध के हर स्वर को बहिष्कृत कर दिया जाता है जिस तरह आपने हमारे सबसे छोटे बेटे कार्तिक को बहिष्कृत कर दिया गया था।

उसका दोष केवल इतना ही था न कि उसे आपके जैसे उच्चतम न्यायालय का अभिवक्ता नहीं बनना था। उसे पर्दे पर सबका मनोरंजन करने वाला अभिनेता बनना था जिसे आप अपनी प्रतिष्ठा के अनुरुप नहीं समझते हैं। मेरी सबसे प्रिय संतान कार्तिक जो मेरी हर भावना का ख़्याल रखता था लेकिन आपसे तो मेरी कोई ख़ुशी बर्दाश्त नहीं होती। आपको अपने सामने कोई नज़र ही नहीं आता और आएगा भी कैसे आपकी आँखें तो अपनी ही चमक से चौंधियाई रहती हैं फिर भला सामने वाले पर आपकी नज़र कैसे पड़ेगी।

आज न जाने क्यों स्मृतियों के भंडारगृह से निकलकर एक-एक करके वे सारे पुराने दर्द सावित्री के मन के द्वार पर दस्तक दे रहे हैं जिसे उसने किसी उपेक्षित बक्से में बंद कर रखा था । खुला रखती तो नासूर बनकर जीने नहीं देता। अचानक उसे ये गीत याद आ गया,‘मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया हर फ़िक़्र को धुएँ में उड़ाता चला गया।’  देवआनंद पर फ़िल्माया गया ‘हम दोनों’ का ये गीत उसे बहुत पसंद है। सीधी-साधी सावित्री क्या जाने कि चिंता को सिगरेट के धुएँ में कैसे उड़ाया जाता है उसे तो यही पता है कि चिंता चिता समान और उस चिता की अग्नि से उठने वाले धुएँ को उसने अपने सीने में कब से दबा रखा है। जब कभी उस धुएँ से पिघलकर उसका दर्द आँखों से बाहर आने को आतुर हो उठता है तो वह अपने गिरिधर गोपाल के सामने उन्हें बहाकर अपना मन हल्का कर लेती है। सावित्री के भीतर भावनाओं का ज्वार उठ रहा था। भूखे पेट वैसे ही क्रोध बहुत आता है और आज तो सावित्री पूजा के बाद अपने इष्टदेव से त्रुटियों के लिए क्षमाप्रार्थना भी ढंग से नहीं कर सकी थी। ऐसा लग रहा था मानो देवस्थल से निकलकर सीधे युद्धस्थल पर पहुँच गई थी। मन ने विद्रोह का बिगुल बजाया लेकिन संयम ने उस पर कर्तव्य का आवरण डालकर उसके स्वर को दबा दिया और उनकी नज़रें अपने गुमशुदा मोबाइल की तलाश में जुट गई।

सावित्री को मानो मोबाइल से बैर हो। अक्सर इधर-उधर रुखकर भूल जाया करती है और फिर सबसे पूछती रहती है कि किसी ने उनका मोबाइल देखा है क्या? हथेली में समाने वाले इस संपर्क यंत्र के प्रति उनका तनिक भी आकर्षण नहीं है सिवाए एक के और वह है वीडियो कॉलिंग। इसी के सहारे तो बगीचे में सैर के बहाने हर दिन अपने लाडले कार्तिक को जी भर निहारते हुए पेट भर बतियाती है वरना श्रीमान का बस चले तो वे कार्तिक का नामोनिशान घर से मिटा दें। जब से उसकी नई फ़िल्म का वो वाला गाना रिलीज़ हुआ है जिसमें वह किसी बार गर्ल के साथ आइटम सॉंग पर थिरक रहा है तब से श्रीमान का क्रोध सातवें आसमान पर है। चुन-चुनकर पूरे घर से कार्तिक की सारी तस्वीरें हटाकर दराज़ में बंद कर दी है।

सावित्री ने जब कार्तिक से इस गाने के बारे में पूछा तो उसने सफ़ाई देते हुए कहा था ऐसे गानों पर थिरकना उसके अभिनय का हिस्सा है उसके वास्तविक जीवन का नहीं। हालांकि उसे अपनी परवरिश पर पूरा विश्वास है लेकिन फिर भी उसके बारे में जब लोग तरह-तरह की बातें करते हैं तो उसका भरोसा भी डगमगाने लगता है। कई बार कसम दिलाकर पूछने की कोशिश की और हर बार उसका जवाब यही था कि वास्तविक जीवन में वह सुरा और सुंदरी दोनों से दूर रहता है। कार्तिक की बातों पर विश्वास करने के अतिरिक्त सावित्री के पास कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं। ठीक वैसे ही जैसे शर्मा जी की आज्ञा का पालन करने के अतिरिक्त उसके पास कोई और विकल्प नहीं था। यदि होता भी तो क्या वह उस पर विचार करती?

प्रवेश कक्ष में रखे गोलाकार काँच की मेज़ पर उसके मोबाइल की सतह अचानक चमक उठी। लगता है अभी अभी कोई संदेश आया है। सावित्री ने ऊपर से झाँककर देखा तो प्रेषक में श्रीमान का नाम दिखा। बिना किसी विलंब के फ़ोन को अनलॉक करके संदेश पढ़ा। पतिदेव की ओर से कार्यक्रम का लिंक इस संदेश के साथ मिला कि बिना समय गँवाए तुरंत लिंक से जुड़ जाओ । लाइक के साथ-साथ बढ़िया कमेंट करती रहना। 

‘जी’, अनायास ही सावित्री के मुँह से निकल गया जिसे सुनकर अगले ही पल वो अकचका गई। आज्ञापालन का भाव उसके भीतर इतनी गहरी पैठ कर चुका है कि एकांत में भी उसके मुँह से जी निकल पड़ता है जबकि वहाँ उसे सुनने वाला भी खड़ा नहीं है।

उसके विचारों की शृंखला को भंग करती हुई एक चिर-परिचित रौबदार आवाज़ मोबाइल पर गूँजी, “एक दिवसीय औपचारिकताओं से हमारे कर्तव्य का निर्वहन नहीं होगा। हमें इस भाव को अपने दैनिक आचरण में आत्मसात करना होगा। स्त्रियों का सम्मान करना होगा फिर वह स्त्री हमारी भार्या हो अथवा अपने श्रम से हमारे घर को चमकाने वाली कामवाली बाई हो ।

मनुस्मृति में भी कहा गया है--

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

अर्थात् जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है उनका सम्मान होता है वहाँ देवता वास करते हैं और जहाँ उनका सम्मान न हो वहाँ किए गए सभी अच्छे काम भी निष्फल हो जाते हैं।”

शर्मा जी महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर अपना प्रभावशाली वक्तव्य दिए जा रहे थे। गोष्ठी के प्रतिभागियों और फ़ेसबुक लाइव के दर्शकों की वाहवाही लिए जा रहे थे। न चाहते हुए भी अपने श्रीमान के मुखारविंद से प्रवाहित हो रही इस अमृतधारा का प्रसाद पाने के लिए सावित्री भी फ़ेसबुक लाइव से जुड़ गई और आज्ञानुसार पतिदेव की विद्वता और उदारता का बखान करने वाली सुंदर से सुंदरतम टिप्पणियाँ पोस्ट करने में जुट गई।

हाथ में हिंदी की अभ्यास-पुस्तिका लिए बड़ा पोता अभिनव उसके पास आया और पूछा, “दादी इस मुहावरे का मतलब क्या होता है-- हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के कुछ और।”

दादी ने फ़ेसबुक लाइव की ओर इशारा करते हुए कहा-- इसे कहते हैं हाथी के दाँत..खाने के और दिखाने के कुछ और…

“किसे?” पोते ने जिज्ञासा से दादी की ओर देखा और फिर मोबाइल की स्क्रीन की ओर झाँकते हुए कहा, “क्या दादी आप भी..लगता है आपके चश्मे का नंबर बढ़ गया है। ये तो दादाजी हैं।”

हाँ पता है...इस बार सावित्री के स्वर में पहले से भी अधिक दृढ़ता थी।

बेचारा अभिनव कभी मोबाइल की स्क्रीन को देखता तो कभी दादी के चेहरे की ओर जिस पर कितने ही तरह के भाव आ रहे थे और जा रहे थे। अभिनव ने एक बार फिर से मुहावरा दोहराया – हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के कुछ और...?

-आराधना कुमारी, सिंगापुर
 संपर्क – jhaaradhana@gmail.com

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