जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
 

गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 शिवमंगल सिंह सुमन

दे दिए अरमान अगणित
पर न उनकी पूर्ति दी,
कह दिया मन्दिर बनाओ
पर न स्थापित मूर्ति की।

यह बताया शून्य की आराधना करते रहो--
चिर-पिपासित को दिया मरुथल, मगर निर्भर नहीं !
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?

स्नेह का दीपक जलाकर
आह और कराह दी,
रूप मृण्मय दे, हृदय में
अमरता की चाह दी।

कह दिया बस मौन होकर साधना करते रहो--
'पा जिसे तू जी सका, खोकर उसे तू मर नहीं !'
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?

गगन सीमाहीन, दुस्तर सिन्धु
परिधि अथाह दी,
आदि-अन्त-विहीन, मुझको
विषम-बीहड़ राह दी।

कह दिया, अविराम जग में भटकते फिरते रहो--
कर प्रवासी दे दिया परदेश, लेकिन घर नहीं !
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

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