एक सफेद बड़ा-सा ओला, था मानो हीरे का गोला! हरी घास पर पड़ा हुआ था, वहीं पास मैं खड़ा हुआ था! मैंने पूछा क्या है भाई, तब उसने यों कथा सुनाई! जो मैं अपना हाल बताऊँ, कहने में भी लज्जा पाऊँ! पर मैं तुझै सुनाऊँगा सब, कुछ भी नहीं छिपाऊँगा अब! जो मेरा इतिहास सुनेंगे, वे उससे कुछ सार चुनेंगे! यद्यपि मैं न अब रहा कहीं का, वासी हूँ मैं किंतु यहीं का! सूरत मेरी बदल गई है, दीख रही वह तुम्हें नई है! मुझमें आर्द्रभाव था इतना, जल में हो सकता है जितना। मैं मोती-जैसा निर्मल था, तरल किंतु अत्यंत सरल था!
-मैथिलीशरण गुप्त |