टिमटिमाते दियों से जगमगा रही है अयोध्या सरयू में हो रहा है दीप-दान संगीत और नृत्य के सम्मोहन में हैं सारे नगरवासी हर तरफ जयघोष है ---- अयोध्या में लौट आए हैं राम! अंधेरे में डूबा है उर्मिला का कक्ष अंधेरा जो पिछले चौदह वर्षों से रच बस गया है उसकी आत्मा में जैसे मंदिर के गर्भ-गृह में जमता चला जाता है सुरमई धुँआ और धीमा होता जाता है प्रकाश! वह किसी मनस्विनी-सी उदास ताक रही हैं शून्य में सोचते हुए --- राम और सीता के साथ अवश्य ही लौट आए होंगे लक्ष्मण पर उनके लिए उर्मिला से अधिक महत्वपूर्ण है अपने भ्रातृधर्म का अनुशीलन उन्हें अब भी तो लगता होगा ---- हमारे समाज में स्त्रियाँ ही तो बनती हैं धर्मध्वज की यात्रा में अवांछित रुकावट --- सोच कर सिसक उठती है उर्मिला चुपके से काजल के साथ बह जाती है नींद जो अब तक उसके साथ रह रही थी सहचरी-सी! अतीत घूमता है किसी चलचित्र-सा गाल से होकर टपकते आँसुओं में बहने लगते हैं कितने ही बिम्ब!
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चिंतित हैं राजा जनक रजस्वला हो गई हैं दोनों बेटियाँ पर वे अब भी खेलती हैं बच्चों की तरह पुरोहित से करते हैं विमर्श उनके विवाह के लिए पड़ौसी राजाओं की नज़र लगी है परम सुंदरी सीता पर अब सीता का विवाह करना ही होगा खोजना होगा ऐसा वर जो प्रत्यंचा तान दे शिव के धनुष की!
सोचती है उर्मिला---- सच, परम सुंदरी हैं बहन सीता पर क्या मुझमें कोई कमी है, ईश्वर? काश, मैं भी पिता को मिली होती किसी नदी, नाले या खेत खलिहान में मेरे लिए भी आता कोई शिव या किसी अन्य देवता का धनुष मुझे भी चाहता कोई विशिष्ट धनुर्धर! नहीं, पर यह कैसे होता, मैं वीर्य-शुल्का जो नहीं थी इसलिए मुझे भी विदा कर दिया गया सीता के साथ ताकि लक्ष्मण को मिल सके पत्नी और मैं विवाह के बाद भी सीता की सहचरी बनूँ स्त्रियाँ स्नेह में भी बना दी जाती हैं दास उस दिन मिथिला में यही तय हुआ था उर्मिला के लिए!
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न वाल्मीकि बताएंगे न तुलसी अयोध्या के महल में कैसे रहती थी उर्मिला? चार बहनों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ थी सीता भोर की मलयानिल में हम पहुँच जाते थे सीता मंदिर देर तक होता था वेदोच्चार यज्ञ-धूम्र से महक जाता था सारा महल और हम चरण छूकर आशीर्वाद लेते थे ऋषियों से सभी राजकुमार साथ साथ चलते थे अपनी पत्नियों के पर मैं सदा अकेली ही क्यों रही? लक्ष्मण सदा ही चले राम और सीता के पीछे हे दैव, बोलो उन क्षणों में कौन था उर्मिला के साथ? बोलो दैव, रात को जब कई बार बुझ चुकी होती थी दिए की बाती प्रतीक्षा में अकड़ने लगता था मेरा शरीर तब थक कर, पिता और भाई के चरण दबा कर लौटते थे मेरे पति मैं स्नेह से सुला देती थी उन्हें पुत्रवत और रात भर जलती थी बिना तैल की बाती सी क्या आपने यही नियति तय की थी उर्मिला के लिए?
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राम जा रहे थे वनवास पर विशद व्याकुलता के क्षण थे महल में मचा था हाहाकार सीता का आग्रह था वह जाएगी राम के साथ मुझे तो अंत तक यह भी मालूम नहीं था कि लक्ष्मण भी वन जाएंगे उन के साथ मैं जड़वत खड़ी थी महल के द्वार पर और लक्ष्मण ने आकर कहा --- सुनो, तुम मेरी अनुपस्थिति में रखोगी मेरी सभी माताओं का ध्यान यदि उन्हें कष्ट हुआ तो हम नरक के भागी होंगे! और वह बिना मुझे सांत्वना का एक भी शब्द कहे दौड़ गए राम के पीछे दैव, ऐसा तो कोई अपनी परिचारिका के साथ भी नहीं करता मैं तो अग्नि की साक्षी में उनकी पत्नी बनी थी!
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ये चौदह वर्ष कैसे काटे हैं उर्मिला ने पूछो किसी व्रती से पूछो किसी ऐसी स्त्री से जिसे दण्ड मिला हो सुहाग का जो वचनबद्ध होकर जी रही हो किसी काल्पनिक पुरुष के लिए सतयुग में भी यही जीवन था एक स्त्री का!
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दीपपर्व है आज और मेरे मन में गहन अंधकार है सच कहूँ तो मुझे प्रतीक्षा नहीं है लक्ष्मण की मुझे प्रतीक्षा नहीं है अपने धर्म परायण पति की उनका आना, आना है किसी शेषनाग का जिसके फन पर पूरी पृथ्वी स्थापित है जो फुंकार सकता है भस्म कर सकता है पूरा ब्रह्मांड पर अपने शीश को प्रेयसी के वक्ष पर नहीं टिका सकता! उर्मिला, मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ बिना उस अपराधबोध से मुक्त हुए जो पुरुष ने सदा ही दिया है स्त्री को कुछ भी तो नहीं बदला आज तक स्त्री तो स्त्री ही रही इस सतयुग से कलयुग तक की यात्रा में!
-राजेश्वर वशिष्ठ ['सुनो, वाल्मीकि' किताबनामा प्रकाशन नई दिल्ली ] |