जब माँ नींव की तरह बिछ जाती है पिता तने रहते हैं हरदम छत बनकर भाई सभी उठा लेते हैं स्तम्भों की मानिंद बहन हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा बहुएँ मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती हैं दीवाल में तब नई पीढ़ी के बच्चे खिलखिला उठते हैं आँगन-सा आँगन में खिले किसी बारहमासी फूल-सा तभी गमक-गमक उठता है एक अदद घर समूचे पड़ोस में सारी गलियों में सारे गाँव में पूरी पृथ्वी में
- जयप्रकाश मानस [साभार - अबोले के विरुद्ध] |