वो भटक रहा था यहाँ - वहाँ ढूंढा ना जाने कहाँ - कहाँ जग चादर तान के सोता था पर उन आँखों में नींद कहाँ
तीरथ जल का भी पान किया पोथी-पुस्तक सब छान लिया उन सबसे मिला जो कहते थे हमने ईश्वर को जान लिया
दिल में जिज्ञासा का बवाल मन में उठते सौ-सौ सवाल समझाते वो पर समझें ना तर्कों के फैले मकड़-जाल
ज्ञानी - ध्यानी, योगी महंत बहुविध से उसको समझाते क्या तुमने उसको देखा है सुनते तो बस सकुचा जाते
क्या उसको कभी न पाऊंगा न मेरे हाथ में वो रेखा है क्या कोई नहीं जो यह कह दे हाँ, मैने उसको देखा है
दक्षिणेश्वर में एक योगी है, वो हरि लगन में रहता है काली की ज्योती है उसमें, वो उसकी धुन में रहता है
अनपढ़ योगी औ' ब्रह्ज्ञान मन ये तो समझ न पाता था, पर जाने क्या आकर्षण था जो बरबस खींचे जाता था,
सैंकड़ों प्रश्न,जिज्ञासाएं औ' अविश्वास ने पर खोले मन में लेकर आशंकाएं वे परमहंस से यूँ बोले- वेद पुराण मुझे न सुनना आज-नहीं, जाओ कल आना मुझे आज औ' अभी बताओ क्या तुमने उसको देखा है?
है वो कितने शीशों वाला नीला-पीला है या काला? मोर मुकुट या नाग की माला या है उसके मुंह में ज्वाला? या है वो एक दिव्य अग्नि -सा यज्ञों के पावन प्रकाश-सा निराकार या फिर वो सगुण है, मुझे बताओ क्या-क्या गुण है?
मुझको लगता वो एक छल है पंडों का बस वो एक बल है उसका नाम है इनका धंधा, मै समझा ये गोरखधंधा वरना तुम मुझको बतलाओ जिसो कण-कण में गीता है जिसके घर-घर राम नाम है वो भारत फिर क्यों गुलाम है? ये भूखा फिर क्यों भूखा है, ये प्यासा, फिर क्यों प्यासा है, है दीनदुखी, क्यों दीनदुखी क्यों टूटी उसकी आशा है? क्यों है हैजा , क्यों अकाल है क्यों जन-जन का बुरा हाल है? केवल निर्धन को ही डसता ये कैसा है निर्दयी काल?
प्रश्न सैकड़ों, प्रश्न निरंतर, मुझको मथते, न जगने, न सोने देते, प्रश्न चुटीले, प्रश्न नुकीले ना हँसने, ना रोने देते मौन रहे कुछ क्षण गुरूवर गंभीर हुए, फिर हर्षाये नदिया का स्वागत करने को सागर ज्यों बाहें फैलाए हॉं, मैंने उसको देखा है जैसे तुमको देख रहा हूँ।
मेरे संग-संग वो रहता है मेरे संग उठता-सोता है जब मैं व्याकुल होता हूँ मेरे संग-संग वो रोता है। वो जड़ में है,चेतन में है वो सटि के कण-कण में है, तू ढ़ूंढ रहा है उसे कहाँ, वो तेरी हर धड़कन में है। पर जब तू उसको देखेगा, फिर देख न पाएगा माया, हो अंधकार से प्रीत जिसे उसने प्रकाश को कब पाया!
कैसा भ्रम है, कैसा संशय तू ही तो ज्ञान का स्रष्टा है औरों नें केवल सुना सत्य, भारत ही उसका द्रष्टा है कर्म-कर्म निष्काम कर्म हर क्षण अपना उसको दे दो ये पल-दो-पल का जीवन है आलस में इसको मत खो दो! वो एक टांग पर खड़ा हुआ, वो अंगारों चढ़ा हुआ, वो तो पानी पर चलता है वो जिंदा सांप निगलता है। ये जादू भी कोई जादू है, ये साधु भी कोई साधु है ? एकांत गुफा, व्यक्तिगत मोक्ष सन्यास नहीं, पलायन है ये कैसा उसका आराधन है नर ही तो नारायण है!
कर्मों से मुक्ति, मुक्ति नहीं फल से मुक्ति ही मुक्ति है, जो तम का बन्धन दूर करे वे युक्ति ही तो युक्ति है, तेरे संचित कर्मों के क्षण उड़ जाते बन वर्षा के कण ये ही बादल,ये ही बिजली, ये धूप-चांदनी खिली-खिली ये ही सावन, है यही फाग गाते मेघा मल्हार राग सह कर मौसम की अथक मार झंझावत से किया प्यार उससे ही स्वेदकण पाती है प्यासी धरती मुस्काती है ये उसके यौवन की मदिरा, वो फिर जवान हो जाती है।
दामिनी दमकती दमक-दमक धरती गाती है झनक-झनक वे फिर बसंत लेकर आता महका करते हैं घर आंगन बन बीज उगा जो माटी में करता वसुधा का अभिनंदन सच का उजियारा यही तो है हम सबका प्यारा वही तो है। वो ही केशव,वो ही त्रिपुरारी, वो ही तो है सम्पूर्ण काम शंकर, माधव, ब्रह्मा, विष्णु ऐसे जाने कितने सुनाम हो मोर मकुटु या जटा,शंख या हो कांधे पर धनुष-बाण हों राम, मोहम्मद या ईसा शिव हों या कृष्ण-करूणानिधान जैसा जो मन में भाव भरे वैसा ही उसका नाम धरे मर्यादा पर जो चले सदा मर्यादा पुरूषोतम है वही सबके मन को मोहित करता मनमोहन-नटनागर है वही जब होड़ लगी हो अमृत की विष धारे जो, शंकर है वही है एक सत्य,जिसको हम तुम नाना रूप में पाते हैं है एक वही,फिर पाखंडी क्यों अलग-अलग बतलाते हैं।
काया-माया, ये आकर्षण सब नश्वर है,सब नश्वर है तू देह नहीं, ना रक्त चाम , तू ईश्वर है,तू ईश्वर है मानव की छाया छूने से होते जो पतित गिर जाते हैं सूर्यास्त तुरंत होता उनका वो घोर तिमिर में जाते हैं अविजित, समदृष्टा नारायण निष्कपट प्यार से हारे हैं । सोने की लंका ठोकर पर, शबरी के बेर ही प्यारे हैं।
गीता के चिर आदर्शों को कर्मों को तूने कब ढाला बिठलाकर उसको मंदिर में पहना दी फूलों की माला लहरें देती हैं आमंत्रण ये बिजली तुम्हें बुलाती है, जिसमें पानी है, लोहा है उसको आवाज लगाती है क्षण-क्षण मृत्यु की बेला है क्षण-क्षण जीवन अलबेला है उसने ही पाया है अमृत जो बढ़ा आग से खेला है समझा था यूं कुछ-कुछ यह मन पर भ्रम में रहता था यह मन इस युग का अर्जुन मांग रहा प्रत्यक्ष हरि का ही दर्शन फिर स्पर्श किया ज्यों ही गुरू ने नस-नस में बिजली दौड़ गई चेतना हुई जाग्रत ऐसे धरती को,नभ को छोड़ गई इतिहास रचा नूतन उस क्षण चेतन ने चेतन को पकड़ा वो जन्म-जन्म का बंधन था चेतन ने चेतन को जकड़ा मंथर गति से बहता निर्झर सौ-सौ कोयल के मादक स्वर, वो मिलन का मधुरिम गीत हुआ, वो दृश्य वर्णनातीत हुआ कैसी शंका या, आशंका बस अकथनीय आनंद हुआ, ऊर्जा के उस हस्तांतरण से 'नरेन' विवेकानंद हुआ।
- अनिल जोशी उपाध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल शिक्षा मंत्रालय, भारत |