हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने सरल स्वभाव के कारण जाने जाते हैं, उनमें अहंकार लेशमात्र भी न था।
'सरस्वती' पत्रिका के संपादन से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् वे अपने गांव चले गए और वहीं खेती-बाड़ी करने लगे। ग्रामवासियों की इच्छा का आदर करते हुए उन्होंने सरपंच का पद स्वीकार कर लिया।
एक दिन जब वे अपने खेतों से होकर गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक मजदूर औरत मेड़ पर बैठी रो रही थी। आचार्य द्विवेदी ने जब रोने का कारण पूछा तो उस महिला ने बताया कि उसे सांप ने काट लिया था। द्विवेदी जी ने तुरंत वहीं हंसिए से घाव चीरकर जहर निकाला और फिर अपना जनेऊ तोड़कर उसे कस कर बांध दिया, ताकि विष फैलने न पाए। फिर वे उसे किसी डॉक्टर के पास ले जाने का उपक्रम करने लगे। इस बीच वहाँ गाँव के अनेक लोग आ पहुंचे। सब कुछ देखने-समझने के बाद कुछ गांव वालों ने द्विवेदी जी से कहा, आप ब्राह्मण हैं, यह महिला अछूत है और आपने पवित्र जनेऊ तोड़कर इसके पांव में बांध दिया। यह आपने ठीक नहीं किया। आचार्य ने कहा, "मनुष्य के जीवन की रक्षा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जो जनेऊ इस स्त्री की रक्षा नहीं कर सकेगा, वह मेरी रक्षा क्या करेगा?"
इंसानियत का धर्म सर्वोत्तम धर्म है।
[ भारत-दर्शन संकलन ]
|