यह कैसे संभव हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा समस्त भारत की मातृभाषा के समान हो जाये? - चंद्रशेखर मिश्र।

भीष्म साहनी | Bhisham Sahni | Profile & Collections

प्रगतिवादी आन्दोलन 1930 के बाद उभर रहे यथार्थवादी परिणामों व परिस्थितियों को विकसित करने वाला आन्दोलन था। इस आन्दोलन ने सामाजिकता से परिपुष्ट यथार्थवादी कथा साहित्य की नींव रखी। प्रगतिवादी साहित्य को प्रारम्भिक दौर में रचना की दृष्टि से नेतृत्व व निर्देशन प्रेमचन्द, पंत, निराला और उग्र से मिला परन्तु उपन्यास के माध्यम से मार्क्सवादी विचारों को जनता तक पहुँचाने का प्रथम प्रयास राहुल सांकृत्यायन ने 'भागो नही दुनिया को बदलो' के माध्यम से किया।

जहाँ तक प्रगतिवादी कथा आन्दोलन और भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है तो इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नही है। हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी। मार्क्सवाद ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा था। इसी मार्क्सवादी चिन्तन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन - जन तक पहुंचाने वालों में एक नाम भीष्म साहनी जी का है। स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भाँति 'भीष्म साहनी' सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। जनवादी चेतना के लेखक भीष्म जी की लेखकीय संवेदना का आधार जनता की पीड़ा है। जनसामान्य के प्रति समर्पित साहनी जी का लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर अवलम्बित है।

भीष्म जी एक ऐसे साहित्यकार थे जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि बात की सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी उतना ही उचित समझते थे। वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता व संघर्ष के बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वाहन करते थे। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करूणा, मानवीय मूल्य व नैतिकता विद्यमान है।

उनका जन्म 8 अगस्त 1915 को रावलपिण्डी में एक सीधे-सादे मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने पिता श्री हरबंस लाल साहनी तथा माता श्रीमती लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी विषय में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होने डॉ इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में 'Concept of the hero in the novel' शीर्षक के अन्तर्गत अपना शोधकार्य सम्पन्न किया। सन् 1944 में उनका विवाह शीला जी के साथ हुआ। उनकी पहली कहानी 'अबला' इण्टर कालेज की पत्रिका 'रावी' में तथा दूसरी कहानी 'नीली ऑंखे' अमृतराय के सम्पादकत्व में 'हंस' में छपी। साहनी जी के 'झरोखे', 'कड़ियाँ', 'तमस', 'बसन्ती', 'मय्यादास की माड़ी', 'कुंतो', 'नीलू नीलिमा नीलोफर' नामक उपन्यासो के अतिरिक्त भाग्यरेखा, पटरियाँ, पहला पाठ, भटकती राख, वाड.चू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, प्रतिनिधि कहानियाँ व मेरी प्रिय कहानियाँ नामक दस कहानी संग्रहों का सृजन किया। नाटको के क्षेत्र में भी उन्होने हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी मुआवजे जैसे प्रसिद्धि प्राप्त नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अन्तर्गत उन्होने मेरे भाई बलराज, अपनी बात, मेंरे साक्षात्कार तथा बाल साहित्य के अन्तर्गत 'वापसी' 'गुलेल का खेल' का सृजन कर साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम अजमायी। अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले उन्होने 'आज के अतीत' नामक आत्मकथा का प्रकाशन करवाया। 11 जुलाई सन् 2003 को इनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया।

स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भीष्म जी गहन मानवीय संवेदना के सषक्त हस्ताक्षर थे। जिन्होने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ का स्पष्ट चित्र अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया। उनकी यथार्थवादी दृष्टि उनके प्रगतिशील व मार्क्सवादी विचारों का प्रतिफल थी। भीष्म जी की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उन्होने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षो को झेला, उसी का यथावत् चित्र अपनी रचनाओं में अंकित किया। इसी कारण उनके लिए रचना कर्म और जीवन धर्म में अभेद था। वह लेखन की सच्चाई को अपनी सच्चाई मानते थे।

कथाकार के रूप में भीष्म जी पर यशपाल और प्रेमचन्द की गहरी छाप है। उनकी कहानियों में अन्तर्विरोधों व जीवन के द्वन्द्वो, विसंगतियों से जकड़े मघ्यवर्ग के साथ ही निम्नवर्ग की जिजीविषा और संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है। जनवादी कथा आन्दोलन के दौरान भीष्म साहनी ने सामान्य जन की आशा, आकांक्षा, दु:ख, पीड़ा, अभाव, संघर्ष तथा विडम्बनाओं को अपने उपन्यासों से ओझल नहीं होने दिया। नई कहानी में भीष्म जी ने कथा साहित्य की जड़ता को तोड़कर उसे ठोस सामाजिक आधार दिया। एक भोक्ता की हैसियत से भीष्म जी ने विभाजन के दुर्भाग्यपूर्ण खूनी इतिहास को भोगा है। जिसकी अभिव्यक्ति 'तमस' में हम बराबर देखते है। जहाँ तक नारी मुक्ति समस्या का प्रश्न है, भीष्म जी ने अपनी रचनाओं में नारी के व्यक्तित्व विकास, स्वातन्त्र्य, एकाधिकार, आर्थिक स्वातन्त्रता, स्त्री शिक्षा तथा सामाजिक उत्तरदायित्व आदि उसकी 'सम्मानजनक स्थिति' का समर्थन किया हैं। एक तरह से देखा जाए तो साहनी जी प्रेमचन्द के पदचिन्हों पर चलते हुए उनसे भी कहीं आगे निकल गए है। भीष्म जी की रचनाओं में सामाजिक अन्तर्विरोध पूरी तरह उभरकर आया है। राजनैतिक मतवाद अथवा दलीयता के आरोप से दूर भीष्म साहनी ने भारतीय राजनीति में निरन्तर बढ़ते भ्रष्टाचार, नेताओं की पाखण्डी प्रवृत्ति, चुनावों की भ्रष्ट प्रणाली, राजनीति में धार्मिक भावना, साम्प्रदायिकता, जातिवाद का दुरूपयोग, भाई-भतीजावाद, नैतिक मूल्यों का ह्यस, व्यापक स्तर पर आचरण भ्रष्टता, शोषण की षडयन्त्रकारी प्रवृत्तियां व राजनैतिक आदर्शों के खोखलेपन आदि का चित्रण बड़ी प्रामाणिकता व तटस्थता के साथ किया। उनका सामाजिक बोध व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित था। उनके उपन्यासों में शोषणहीन, समतामूलक प्रगतिशील समाज की रचना, पारिवारिक स्तर, रूढ़ियों का विरोध तथा संयुक्त परिवार के पारस्परिक विघटन की स्थितियों के प्रति असन्तोष व्यक्त हुआ। भीष्म जी का सांस्कृतिक दृष्टिकोण नितान्त वैज्ञानिक और व्यवहारिक है, जो निरन्तर परिष्करण परिशोधन, व परिवर्धन की प्रक्रिया से गुजरता है। प्रगतिशील दृष्टि के कारण वह मूल्यों पर आधारित ऐसी धर्मभावना के पक्षधर हैं जो मानव मात्र के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध और उपादेय है।


उनके साहित्य में जहाँ एक ओर सह्नदयता व सहानुभूति है। वही दूसरी ओर जातीय तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान की आग भी है। वे पूँजीवादी आधुनिकताबोध और यथार्थवादी विचार धारा के अन्तर्विरोधों को खोलते चलते है। निम्न मध्यवर्ग के समर्थ रचनाकार भीष्म जी भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के फलस्वरूप विश्व साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद में व्याप्त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हैं। वे मध्ययुगीन सामन्ती व्यवस्था से समझौता करके पूँजीवाद के द्वारा अपनी बुर्जुआ संस्कृति से लोकप्रिय हुई निम्नकोटि कें बुर्जुआ संस्कारों को चित्रित कर प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाते दिखते है। वे एक ओर आधुनिकताबोध की विसंगतियों और अजनबीपन के विरूद्ध लड़ते हैं तो दूसरी ओर रूढ़ियों अंधविश्वासों वाली धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करते हैं।


यदि स्त्री पुरूष सम्बन्ध की बात की जाए तो भीष्म जी भारतीय गृहस्थ जीवन में स्त्री पुरूष के जीवन को रथ के दो पहियों के रूप में स्वीकार करते है। विकास और सुखी जीवन के लिए दोनों के बीच आदर्श संतुलन और सामंजस्य का बना रहना अनिवार्य है। उनकी रचनाओं में सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने वाले आदर्श दम्पत्तियों को बड़ी गरिमा के साथ रेखांकित किया गया है। उनका विश्वास है कि स्त्रियों के लिए समुचित शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता व व्यक्तित्व विकास की सुविधा आदर्श समाज की रचना के लिए नितान्त आवश्यक है। वह स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के पक्षपाती थे। जो अवसर पाकर अपना चरम विकास कर सकती है। भीष्म जी परम्परा से चली आ रही विवाह की जड़ परम्परा को स्वीकार न करके भावनात्मक एकता और रागात्मक अनुबंधो को विवाह का प्रमुख आधार मानते थे।


मानवीय मूल्यों पर आधारित उनकी धर्म भावना इंसान को इंसान से जोड़ती है न कि उन्हें पृथक करती है। उनके उपन्यासों में शोषणविहीन समतामूलक प्रगतिशील समाज की स्थापना के साथ समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणाम, धर्म की विद्रुपता व खोखलेपन को उद्धाटित किया गया है।


मार्क्सवाद से प्रभावित होने के कारण भीष्म जी समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणामों को बड़ी गंभीरता से अनुभव करते थे। पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत वह जन सामान्य के बहुआयामी शोषण को सामाजिक विकास में सर्वाधिक बाधक और अमानवीय मानते थे। बसन्ती, झरोखे, तमस, मय्यादास की माड़ी व कड़ियाँ उपन्यासों में उन्होंने आर्थिक विषमता और उसके दु:खद परिणामों को बड़ी मार्मिकता से उद्धाटित किया जो समाज के स्वार्थी कुचक्र का परिणाम है और इन दु:खद स्थितियों के लिए दोषपूर्ण समाज व्यवस्था उत्तरदायी है। एक शिल्पी के रूप में भी वह सिद्धहस्त कलाकार थे। कथ्य और वस्तु के प्रति यदि उनमें सजगता और तत्परता का भाव था तो शिल्प सौष्ठव के प्रति भी वह निरन्तर सावधान रहते थे।

भीष्म जी प्रेमचन्द के समान जीवन की विसंगतियो और विडम्बनाओं को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं भले ही वह प्रेमचन्द की भाँति ग्रामीण वस्तु को नही पकड़ पाये किन्तु परिवेश की समग्रता में वस्तु और पात्र के अन्त: सम्बन्धो को जिस प्रकार खोलते हैं और इन सम्बन्धों में जनता के मुक्तकामी संघर्षों को रूपायित करते हैं वह निश्चित रूप से उन्हें न केवल प्रेमचन्द के निकट पहुचाता है अपितु उसमें नया भीष्म भी जुड़ जाता है। अपनी रचनाओ में उन्होनें जहाँ जीवन के कटुतम यथार्थो का प्रामाणिक चित्रण किया है वही जनसामान्य का मंगलविधान करने वाले लोकोपकारक आदर्शो को भी रेखांकित किया है। अपनी इन्ही कालजयी रचनाओं के कारण वह हिन्दी साहित्य में युगान्तकारी उपन्यासकार के रूप में चिरस्मरणीय रहेगें।

- डॉ शुभिका सिंह
प्रवक्ता नवयुग कन्या महाविद्यालय, लखनऊ

'लेखिका ने स्वर्गीय श्री भीष्म साहनी जी के कथा साहित्य पर पी एच डी की उपाधि प्राप्त की है।

भीष्म साहनी | Bhisham Sahni's Collection

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अमृतसर आ गया है...

गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मजाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठा थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।

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दो गौरैया | बाल कहानी

घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं-माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुँच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहाँ कभी तोते पहुँच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ। वह शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएँ, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!घर के अंदर भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात-भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते फिरते हैं। वह धमा-चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अँंगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गर्मी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झाँक जाती है। मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही ‘फिर आऊँगी’ कहकर चली जाती है। शाम पड़ते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार पर फैलाए कसरत करने लगते हैं। घर में कबूतर भी हैं। दिन-भर ‘गुटर-गूँ, गुटर-गूँ’ का संगीत सुनाई देता रहता है। इतने पर ही बस नहीं, घर में छिपकलियाँ भी हैं और बर्रे भी हैं और चींटियों की तो जैसे फ़ौज ही छावनी डाले हुए है।अब एक दिन दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे उड़-उड़कर मकान देखने लगीं। पिताजी कहने लगे कि मकान का निरीक्षण कर रही हैं कि उनके रहने योग्य है या नहीं। कभी वे किसी रोशनदान पर जा बैठतीं, तो कभी खिड़की पर। फिर जैसे आईं थीं वैसे ही उड़ भी गईं। पर दो दिन बाद हमने क्या देखा कि बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन्होंने अपना बिछावन बिछा लिया है, और सामान भी ले आईं हैं और मजे से दोनों बैठी गाना गा रही हैं। जाहिर है, उन्हें घर पसंद आ गया था।माँ और पिताजी दोनों सोफे पर बैठे उनकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माँ सिर हिलाकर बोलीं, "अब तो ये नहीं उड़ेंगी। पहले इन्हें उड़ा देते, तो उड़ जातीं। अब तो इन्होंने यहाँ घोंसला बना लिया है।"इस पर पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और बोले, "देखता हूँ ये कैसे यहाँ रहती हैं! गौरैयाँ मेरे आगे क्या चीज हैं! मैं अभी निकाल बाहर करता हूँ।""छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!" माँ ने व्यंग्य से कहा।माँ कोई बात व्यंग्य में कहें, तो पिताजी उबल पड़ते हैं वह समझते हैं कि माँ उनका मजाक उड़ा रही हैं। वह फौरन उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर जोर से ताली बजाई और मुँह से ‘श-----शू’ कहा, बाँहें झुलाईं, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाहें झुलाते, कभी ‘श---शू’ करते।गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर नीचे की ओर झाँककर देखा और दोनों एक साथ ‘चीं-चीं करने लगीं। और माँ खिलखिलाकर हँसने लगीं।पिताजी को गुस्सा आ गया, इसमें हँसने की क्या बात है?माँ को ऐसे मौकों पर हमेशा मजाक सूझता है। हँसकर बोली, चिड़ियाँ एक दूसरी से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है?तब पिताजी को और भी ज्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज्यादा ऊँचा कूदने लगे। गौरैयाँ घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के डैने पर जा बैठीं। उन्हें पिताजी का नाचना जैसे बहुत पसंद आ रहा था। माँ फिर हँसने लगीं, "ये निकलेंगी नहीं, जी। अब इन्होंने अंडे दे दिए होंगे।""निकलेंगी कैसे नहीं?" पिताजी बोले और बाहर से लाठी उठा लाए। इसी बीच गौरैयाँ फिर घोंसले में जा बैठी थीं। उन्होंने लाठी ऊँची उठाकर पंखे के गोले को ठकोरा। ‘चीं-चीं’ करती गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं।"इतनी तकलीफ़ करने की क्या जरूरत थी। पंखा चला देते तो ये उड़ जातीं।" माँ ने हँसकर कहा।पिताजी लाठी उठाए पर्दे के डंडे की ओर लपके। एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाज़े पर जा बैठी। दूसरी सीढ़ियों वाले दरवाज़े पर।माँ फिर हँस दी। "तुम तो बड़े समझदार हो जी, सभी दरवाज़े खुले हैं और तुम गौरैयों को बाहर निकाल रहे हो। एक दरवाज़ा खुला छोड़ो, बाकी दरवाज़े बंद कर दो। तभी ये निकलेंगी।"अब पिताजी ने मुझे झिड़ककर कहा, "तू खड़ा क्या देख रहा है? जा, दोनों दरवाज़े बंद कर दे!"मैंने भागकर दोनों दरवाज़े बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाज़ा खुला रहा।पिताजी ने फिर लाठी उठाई और गौरैयों पर हमला बोल दिया। एक बार तो झूलती लाठी माँ के सिर पर लगते-लगते बची। चीं-चीं करती चिड़ियाँ कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह जा बैठतीं। आखिर दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाज़े में से बाहर निकल गईं। माँ तालियाँ बजाने लगीं। पिताजी ने लाठी दीवार के साथ टिकाकर रख दी और छाती फैलाए कुर्सी पर आ बैठे।"आज दरवाज़े बंद रखो" उन्होंने हुक्म दिया। "एक दिन अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो घर छोड़ देंगी।"तभी पंखे के ऊपर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी। और माँ खिलखिलाकर हँस दीं। मैंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, दोनों गौरैया फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं।"दरवाज़े के नीचे से आ गई हैं," माँ बोलीं।मैंने दरवाज़े के नीचे देखा। सचमुच दरवाज़ों के नीचे थोड़ी-थोड़ी जगह खाली थी।पिताजी को फिर गुस्सा आ गया। माँ मदद तो करती नहीं थीं, बैठी हँसे जा रही थीं।अब तो पिताजी गौरैयों पर पिल पड़े। उन्होंने दरवाज़ों के नीचे कपड़े ठूँस दिए ताकि कहीं कोई छेद बचा नहीं रह जाए। और फिर लाठी झुलाते हुए उन पर टूट पड़े। चिड़ियाँ चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गईं। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर कमरे में मौजूद थीं। अबकी बार वे रोशनदान में से आ गई थीं जिसका एक शीशा टूटा हुआ था।"देखो-जी, चिड़ियों को मत निकालो" माँ ने अबकी बार गंभीरता से कहा, "अब तो इन्होंनेअंडे भी दे दिए होंगे। अब ये यहाँ से नहीं जाएँगी।"क्या मतलब? मैं कालीन बरबाद करवा लूँ? पिताजी बोले और कुर्सी पर चढ़कर रोशनदान में कपड़ा ठूँस दिया और फिर लाठी झुलाकर एक बार फिर चिड़ियों को खदेड़ दिया। दोनों पिछले आँगन की दीवार पर जा बैठीं।इतने में रात पड़ गई। हम खाना खाकर ऊपर जाकर सो गए। जाने से पहले मैंने आँगन में झाँककर देखा, चिड़ियाँ वहाँ पर नहीं थीं। मैंने समझ लिया कि उन्हें अक्ल आ गई होगी। अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी।दूसरे दिन इतवार था। जब हम लोग नीचे उतरकर आए तो वे फिर से मौजूद थीं और मजे से बैठी मल्हार गा रही थीं। पिताजी ने फिर लाठी उठा ली। उस दिन उन्हें गौरैयों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी।अब तो रोज़ यही कुछ होने लगा। दिन में तो वे बाहर निकाल दी जातीं पर रात के वक्त जब हम सो रहे होते, तो न जाने किस रास्ते से वे अंदर घुस आतीं।पिताजी परेशान हो उठे। आखिर कोई कहाँ तक लाठी झुला सकता है? पिताजी बार-बार कहें, "मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूँ।" पर आखिर वह भी तंग आ गए थे। आखिर जब उनकी सहनशीलता चुक गई तो वह कहने लगे कि वह गौरैयों का घोंसला नोचकर निकाल देंगे।और वह पफ़ौरन ही बाहर से एक स्टूल उठा लाए।घोंसला तोड़ना कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और लाठी लेकर स्टूल पर चढ़ गए। "किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए," उन्होंने गुस्से से कहा।घोंसले में से अनेक तिनके बाहर की ओर लटक रहे थे, गौरैयों ने सजावट के लिए मानो झालर टाँग रखी हो। पिताजी ने लाठी का सिरा सूखी घास के तिनकाें पर जमाया और दाईं ओर को खींचा। दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए और फरफराते हुए नीचे उतरने लगे।"चलो, दो तिनके तो निकल गए," माँ हँसकर बोलीं, "अब बाकी दो हजार भी निकल जाएँगे!"तभी मैंने बाहर आँगन की ओर देखा और मुझे दोनों गौरैयाँ नजर आईं। दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी थीं। इस बीच दोनों कुछ-कुछ दुबला गई थीं, कुछ-कुछ काली पड़ गई थीं। अब वे चहक भी नहीं रही थीं।अब पिताजी लाठी का सिरा घास के तिनकों के ऊपर रखकर वहीं रखे-रखे घुमाने लगे। इससे घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए, और घोंसला लाठी के इर्द-गिर्द खिंचता चला आने लगा। फिर वह खींच-खींचकर लाठी के सिरे के इर्द-गिर्द लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रूई के फाहे, और धागे और थिगलियाँ लाठी के सिरे पर लिपटने लगीं। तभी सहसा जोर की आवाज आई, "चीं-चीं, चीं-चीं!!!"पिताजी के हाथ ठिठक गए। यह क्या? क्या गौरैयाँ लौट आईं हैं? मैंने झट से बाहर की ओर देखा। नहीं, दोनों गौरैयाँ बाहर दीवार पर गुमसुम बैठी थीं।"चीं-चीं, चीं-चीं!" फिर आवाज आई। मैंने ऊपर देखा। पंखे के गोले के ऊपर से नन्हीं-नन्हीं गौरैयाँ सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। अभी भी पिताजी के हाथ में लाठी थी और उस पर लिपटा घोंसले का बहुत-सा हिस्सा था। नन्हीं-नन्हीं दो गौरैयाँ! वे अभी भी झाँके जा रही थीं और चीं-चीं करके मानो अपना परिचय दे रही थीं, हम आ गई हैं। हमारे माँ-बाप कहाँं हैं?मैं अवाक् उनकी ओर देखता रहा। फिर मैंने देखा, पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए हैं। और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर उन्होंने लाठी को एक ओर रख दिया है और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए हैं। इस बीच माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्हीं चिड़ियाँ अभी भी हाँफ-हाँफकर चिल्लाए जा रही थीं और अपने माँ-बाप को बुला रही थीं।उनके माँ-बाप झट-से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते उनसे जा मिले और उनकी नन्हीं-नन्हीं चोंचों में चुग्गा डालने लगे। माँ-पिताजी और मैं उनकी ओर देखते रह गए। कमरे में फिर से शोर होने लगा था, पर अबकी बार पिताजी उनकी ओर देख-देखकर केवल मुसकराते रहे।- भीष्म साहनी

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चीलें

चील ने फिर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्धवृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, मांस के लोथड़े क़ो पंजों में दबोच कर फिर से वैसा ही अर्द्ववृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई। वह कब्रगाह के ऊंचे मुनारे पर जा बैठी है और अपनी पीली चोंच, मांस के लोथडे में बार-बार गाड़ने लगी है।

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गुलेलबाज़ लड़का

छठी कक्षा में पढ़ते समय मेरे तरह-तरह के सहपाठी थे। एक हरबंस नाम का लड़का था, जिसके सब काम अनूठे हुआ करते थे। उसे जब सवाल समझ में नहीं आता तो स्याही की दवात उठाकर पी जाता। उसे किसी ने कह रखा था कि काली स्याही पीने से अक्ल तेज़ हो जाती है। मास्टर जी गुस्सा होकर उस पर हाथ उठाते तो बेहद ऊंची आवाज़ में चिल्लाने लगता- "मार डाला! मास्टर जी ने मार डाला!" वह इतनी ज़ोर से चिल्लाता कि आसपास की जमातों के उस्ताद बाहर निकल आते कि क्या हुआ है। मास्टर जी ठिकक कर हाथ नीचा कर लेते। यदि वह उसे पीटने लगते तो हरबंस सीधा उनसे चिपट जाता और ऊंची-ऊंची आवाज़ में कहने लगता- "अब की माफ़ कर दो जी! आप बादशाह हो जी! आप अकबर महान हो जी! आप सम्राट अशोक हो जी! आप माई-बाप हो जी, दादा हो जी, परदादा हो जी!"

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चीफ़ की दावत

आज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ़ की दावत थी।

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