देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।
 
जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad

महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1889 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था।

हिन्दी नाट्य जगत और कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में जयशंकर प्रसाद अनुपम थे।


साहित्य-साधना:

काव्य: झरना, आँसू, लहर, कामायनी, प्रेम पथिक

नाटक: स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जन्मेजय का नाग यज्ञ, राज्यश्री, अजातशत्रु, विशाख, एक घूँट, कामना, करुणालय, कल्याणी परिणय, अग्निमित्र, प्रायश्चित, सज्जन

कहानी संग्रह: छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इंद्रजाल
उपन्यास : कंकाल, तितली, इरावती

15 नवम्बर, 1937 को आपका निधन हो गया।

 

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गुंडा

वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में,नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था।

 

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जयशंकर प्रसाद की लघुकथाएं

जयशंकर प्रसाद की अनेक लघु गद्य रचनाएं हैं जो लघुकथाएं ही कही जयशंकर प्रसाद की अनेक लघु गद्य रचनाएं हैं जो लघुकथाएं ही कही जाएंगी। उस समय लघुकथा अस्तित्व में नहीं थी यथा इन्हें लघुकथा परिभाषित नहीं किया गया। आज जब लघुकथा की विधा पर शोध हो रहा है तो जयशंकर प्रसाद की इन लघु रचनाओं को भी 'हिन्दी की पहली लघुकथा' की दौड़ में सम्मिलित किया गया है। निसंदेह जब 'पर्सड ने इन रचनाओं की लिखा तो उस समय इन्हें 'लघुकथा' का नाम देना संभव नहीं था।  

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होली की रात | Jaishankar Prasad Holi Night Poetry

बरसते हो तारों के फूल
छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल
कोकिला कैसे रहती मीन।

चाँदनी धुली हुई हैं आज
बिछलते है तितली के पंख।
सम्हलकर, मिलकर बजते साज
मधुर उठती हैं तान असंख।

तरल हीरक लहराता शान्त
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आँसू के कन

वसुधा के अंचल पर

   यह क्या कन-कन सा गया बिखर !
जल शिशु की चंचल क्रीड़ा-सा
जैसे सरसिज दल पर ।

लालसा निराशा में दलमल
वेदना और सुख में विह्वल
यह क्या है रे मानव जीवन!
             कितना था रहा निखर।
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झरना 

मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी

कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
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ममता | कहानी

रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कण्टक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था?
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सिकन्‍दर की शपथ

सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों के बरछे की चमक से 'मिंगलौर'-दुर्ग घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़नेवाले यन्त्र दुर्ग की दीवालों से लगा दिये गये हैं, और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता के साथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल का एक हिस्सा टूटा और यूनानियों की सेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी। पर वह उसी समय पहाड़ से टकराये हुए समुद्र की तरह फिरा दी गयी, और भारतीय युवक वीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकंदर उनके प्रचण्ड अस्त्राघात को रोकता पीछे हटने लगा।

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