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सुबह हो रही है (काव्य) |
Author: शील
सुबह हो रही है रहेगी न रात,
सुनाता हूँ तुमको जमाने की बात।
जो बिकते थे अब तक टकों पर गरीब,
धरोहर में रखते थे अपना नसीब।
जमाना जिन्हें कह रहा था गुलाम,
वही हैं जमाने की पकड़े लगाम।
सदा टूटते थे दुखों के पहाड़,
बरसते थे आँखों से जिनकी असाढ़।
जो पीते दिवाली में आहों का नीर,
जलाते थे होली में अपना शरीर।
रुलाती थी जिनको मुसीबत में ईद,
वही आज बढ़ करके होते शहीद।
ढाता था जिन पर जुलुम जोतदार,
जो थे हुक्म रानों के हरदम शिकार।
मय्यसर न थी जिनको अपनी निगाह,
इशारों में मिलती थी जिनको पनाह।
जमींदार लेते थे जिनसे बिगार,
कसम खाके छिपता था जिनका विचार।
ठिठुरते थे जाड़ों में जिनके किशोर,
अब आया है उनकी इकाई में जोर।
गरजते हैं हाथों में लेकर कुदाल,
जलाते हैं खेतों में युग की मसाल।
वही ले रहे जालिमों से हिसाब,
वही ला रहे आखिरी इन्क़लाब।
- शील