चारों ओर भले ही फैला, उजियारा बिजली का है। ठाकुरजी के सम्मुख अब भी, दीपक देसी घी का है।
गाँव शहर की ओर चल दिए, सूना कर चौबारों को। दूर किया रोज़ी-रोटी ने, बचपन के सब यारों को। फ़्लैटों में रहते हैं अब हम, आँगन हमें नसीब नहीं; लेकिन बालकनी में रक्खा, बिरवा तुलसी जी का है।
संस्कार हम भूल रहे हैं, फ़र्क़ नहीं गुन-अवगुन में। अंग्रेज़ी हैं तौर-तरीक़े, नए रिवाज़ों की धुन में। चाहे कितनी ही रस्मों से, हमने नाता तोड़ लिया; दूल्हा दुल्हन के विवाह में, उबटन पर हल्दी का है।
जप-तप, पूजा-पाठ, हवन में, रूचि किसी की नहीं रही। धर्म-विमुख से लोग हो रहे, जाने कैसी हवा बही। मान्यताओं का क्षरण हो रहा, शुभ संकल्प विलुप्त हुये; पर कलाई पर लाल कलावा, भाल तिलक रोली का है।
नया सही है, ग़लत पुराना, ये कहना तो ठीक नहीं। और पुराना सब अच्छा था, ऐसी कोई लीक नहीं। सही गलत वाले मुद्दे में, नया पुराना क्यूँ देखूँ; 'राहगीर' के लिए मामला, नेकी और बदी का है।
--बृज राज किशोर 'राहगीर' ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001. (भारत) फ़ोन: 9412947379 ई-मेल: brkishore@me.com |