मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
ग़ज़ल  (काव्य)  Click to print this content  
Author:गौरव सक्सेना

हलक में अब साँस भी फंसने लगी है
चोट कोई फिर कहीं रिसने लगी है।

उजड़ते ख्वाबों की जो इक दास्ताँ है
शहर बनके आंख में बसने लगी है।

परछाईं भी गुम इस तरह से हो गयी है
तन्हाई तन्हा देख कर हँसने लगी है।

गुलामी दिल की करें या अक्ल की
रूह दो पाटों तले पिसने लगी है।

जुबाँ में इतना जहर पहले नहीं था
तक़दीर शायद फिर उसे डसने लगी है।

काँच सी नाज़ुक थी ये जो जिंदगी
काँच सी ही टूट कर चुभने लगी है।

- गौरव सक्सेना
  ई-मेल: [email protected]

 

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