विकल हो जाती है माँ देख दुर्दिनता सोच कर हालात कलेजा फट जाता आत्मा चीत्कार कर उठतीं है उसकी नयनों में शब्दों का सागर उमड़ पड़ता
बढ़ता जाता धरा पर अनाचार ,अत्याचार देख कर माँ की छाती काँच-काँच हो जाती पाने को अधिकार अपना रक्त मचल जाता आवेगों की तीव्रता में तूफान सा आ जाता
आखर नहीं निकलते माँ के अधरों द्वार से नित कोसती रहती दुष्टों अपलक नैनों से तब दुर्गा ,चण्डी बन खड़ी हो उठती है माँ काली बन अवनि असुरों का संहार करती
जब जब विकलता बढ़ जाती है भू पर सुलग उठती है जनता ,सत्ता पलट जाती हाथ खड़े होते है लाखों जनक्रान्ति को भारत भू का हाल यह , क्यूँ न माँ दहाड़े
अब तक सौहार्द ,भाईचारे के बीज बोये उनमें कटुता आई, तो कैसे चुप रहे माँ बोलेंगी और झकझोरेंगी ,संहार करेंगी ला उफान समुद्र सा शत्रुओं को मारेंगी
- डॉ मधु त्रिवेदी
डॉ मधु त्रिवेदी शान्ति निकेतन काॅलेज आॅफ बिज़नेस मैनेजमेंट एण्ड कम्प्यूटर साइन्स, आगरा में प्राचार्य के पद पर आसीन हैं। आप कवितायें,ग़ज़ल, हाइकू लिखती हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित। |