शहर और सागर
यह शहर उतना ही विशाल है और उतना ही गहरा जितना विशाल और गहरा है कोई सागर । जैसे सागर में सीप है, साँप हैं। शहर में भी सपने हैं, खतरे हैं।
शहर में कुछ लोग होते हैं जो ज्वार की तरह उठते हैं और भाटे-सा रूप बदल लेते हैं अपने ज्वार-भाटे के बीच में किस्मत बनाते ये किस्मत बिगाड़ते ये ।
इस ज्वार-भाटे से टकराना चाहा दो-चार हाथ जब करना चाहा सपनों के इस शहर को गले जब लगाना चाहा लगा खतरों से मिलने जैसा ।
कभी यह चालाकी करता है कभी भोलापन दिखलाता है हर बार मात देता है मुझसे बड़ा खिलाड़ी यह हर बार सीखा यह देता है भीड़ का हिस्सा होना ही है मेरी नियति।
- प्रियंका सिंह
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निराला को सोचते हुए
मैं अकेली सोचती हूँ कैसा ये शहर! शहर के बीच ही जीवन!
मन करता है दूर जाऊँ- इस कोलाहल से, अजनबीपन से फायदे से, नुकसान से ऊंचाइयों से, गड्ढों से पर जाऊँ कहाँ!
इसे चुना भी मैंने इस दलदल में खुद को फंसाया भी मैंने। तन्हाइयों के दलदल में सोचती हूँ अक्सर एक शब्द- ‘संघर्ष । शहर का दूसरा नाम है- ‘संघर्ष' । इस शहर में रहते हुए ‘संघर्ष' है कभी खुद से तो कभी शहर से कभी खुद को समझना है तो कभी शहर को।
हाँ, यही सच है! यही जीवन है! यही शहर है! यहीं संघर्ष है!!
- प्रियंका सिंह
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उम्र के पन्ने
यह पिता-पुत्र का रिश्ता है सर से सर का कंधों से कंधे का आवाज़ से आवाज़ का रिश्ता है।
जब पिता के कंधे हों बुलंद बेटे की बुलंदी खो जाती है जब बेटे के कंधे हों बुलंद पिता की बुलंदी सो जाती है एक बुलंदी का अवसान दूजी का नया जीवन है पिता की उम्र का अवसान बेटे का नया जीवन है उत्थान-पतन का जीवन है संघर्षों का यह जीवन है नए पृष्ठों का यह जीवन है।
पिता पलटते हैं देखो जीवन के पिछले पन्नों को उनमें है कोई पाठ दबा-सा लचारगी-मायूसी-बेबसी हर क्षण, हर पल, हर घड़ी जुड़ती जाती खुद-ब-खुद वहाँ हर दिन सिखलाती जाती है- भले पुराने पृष्ठ पड़ गए हों लेकिन वह भी जीवन ही था! लेकिन यह भी जीवन ही है!
- प्रियंका सिंह शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली, भारत |