छोटी-सी हमारी नदी टेढ़ी-मेढ़ी धार, गर्मियों में घुटने भर भिगो कर जाते पार। पार जाते ढोर-डंगर, बैलगाड़ी चालू, ऊँचे हैं किनारे इसके, पाट इसका ढालू। पेटे में झकाझक बालू कीचड़ का न नाम, काँस फूले एक पार उजले जैसे घाम। दिन भर किचपिच-किचपिच करती मैना डार-डार, रातों को हुआँ-हुआँ कर उठते सियार। अमराई दूजे किनारे और ताड़-वन, छाँहों-छाँहों बाम्हन टोला बसा है सघन। कच्चे-बच्चे धार-कछारों पर उछल नहा लें, गमछों-गमछों पानी भर-भर अंग-अंग पर ढालें। कभी-कभी वे साँझ-सकारे निबटा कर नहाना छोटी-छोटी मछली मारें आँचल का कर छाना। बहुएँ लोटे-थाल माँजती रगड़-रगड़ कर रेती, कपड़े धोतीं, घर के कामों के लिए चल देतीं। जैसे ही आषाढ़ बरसता, भर नदिया उतराती, मतवाली-सी छूटी चलती तेज धार दन्नाती। वेग और कलकल के मारे उठता है कोलाहल, गँदले जल में घिरनी-भँवरी भँवराती है चंचल। दोनों पारों के वन-वन में मच जाता है रोला, वर्षा के उत्सव में सारा जग उठता है टोला।
- रवींद्रनाथ ठाकुर |